Friday, January 30, 2009

पत्रकारिता के नियम

पत्रकारिता करना है तो भरपूर महनत करने को तैयार हो जाइये शारीरिक ही नही मानसिक भी

हिन्दी का ख़राब वर्तमान

हिन्दी ने इन्टरनेट
पर जिस गति से अपनी जगह बनाई है वह चौंकाने वाली है। इस बात में कोई शक नहीं कि हिन्दी अख़बारों और हिन्दी टीवी चैनलों से लेकर हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन इसके साथ ही हिन्दी को बाजार की भाषा बनाने के नाम पर उसके साथ शर्मनाक दुराचार भी किया है। इसका कारण यह है कि अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी माहौल में पले-बढ़े लोगों ने अपनी एमबीए और मास कम्युनिकेशन की डिग्रियों के बल पर मीडिया, कॉर्पोरेट और सैटेलाईट चैनलों की महत्वपूर्ण जगहों पर कब्जा कर लिया। यहाँ आने के बाद भाषा की शिष्टता, उसकी शुध्दता और भाषाई सौंदर्य का उनके लिए कोई मतलब नहीं रहा। हिन्दी मात्र बोली रह गई यानि जिसको हिन्दी बोलना आता है और जो हिन्दी समझ लेता है वह देश और दुनिया में बसे 70 करोड़ हिन्दी भाषियों का मसीहा हो गया। हिन्दी लिखना या पढ़ना आना कोई योग्यता नहीं रही। इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दी को भ्रष्ट तरीके से लोगों पर थोपा जा रहा है। टीवी पर ख़बर देने वाला हो, या टीवी पर खबर पढ़ने वाला दोनों को अगर हिन्दी का कोई शब्द नहीं सूझता तो वह फट से अंग्रेजी का शब्द बोलकर अपनी खबर को परोस देता है। भले ही उस अंग्रेजी शब्द से अर्थ का अनर्थ हो जाता हो। विज्ञापनों की दुनिया में बैठे लोगों का भी यही हाल है, हिन्दी विज्ञापनों पर अंतिम फैसला वो लोग करते हैं जो न हिन्दी पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं। बस सुनकर अगर उनको मजा आ जाए तो उस विज्ञापन को हरी झंडी मिल जाती है और करोड़ों रुपये खर्च कर उसको बाज़ार में चला दिया जाता है। मगर हिन्दी की शुध्दता के नाम पर कुछ हजार रुपये तक नहीं खर्च किए जाते हैं। हिन्दी शब्दों को जिस आज़ादी के साथ तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है ऐसा धृष्टता अंग्रेजी शब्दों को लेकर कतई नहीं की जाती क्योंकि तब हिन्दुस्तानी अंग्रेज ऐसी विज्ञापन एजेंसी, टीवी चैनल या खबर पढ़ने वाले से लेकर खबर देने वाले तक के अंग्रेजी ज्ञान का उपहास उड़ा सकते हैं, लेकिन हिन्दी को भ्रष्ट करके लिखा और बोला जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि अगर किसी ने हिन्दी में कुछ गलत लिखा है या बोला है तो उसे कहने वाला कौन... ? हिन्दी अखबार तो और आगे जाकर हिन्दी के शब्दों की बखिया उधेड़ने में लगे हैं। न्यूज़ चैनल वाले तो बिचारे हिन्दी जानते ही नहीं, और हिन्दी अखबारों में भी वो लोग काम करने आऩे लगे हैं जिनको चैनल का रिपोर्टर बनना है। लेकिन इस अंधरे में रोशनी पैदा की है इंटरनेट के विस्तार ने। दुनिया भर में फैले हमारे हिन्दी प्रेमी साथियों ने अपनी जिंदगी की जद्दोजहद को जारी रखते हुए, नौकरी और परिवार के लिए अपना समय देने के साथ ही हिन्दी को बचाने की एक ऐसी सार्थक पहल शुरु की है जिससे लगता है कि चैनल और अखबार वालों को बहुत जल्दी अपनी हिन्दी सुधारना पड़ेगी, अगर नहीं सुधारी तो इंटरनेट की हिन्दी जमात उनको इस बात के लिए मजबूर कर देगी। हम इस यात्रा को और विस्तार देते हुए दुनिया भर में फैले हिन्दी प्रेमी साथियों से आग्रह करते हैं कि वे अपने आसपास की घटनाएं, अपने संस्मरण, अपने स्कूल के दिनों की यादें, अपने बचपन के दोस्तों, शिक्षकों, बचपन में नाना-नानी या दादा-दादी के घर की मस्ती भरी जिंदगी, गाँवों की जिंदगी, घर में मनाए जाने वाले वार त्यौहारों, पारिवारिक परंपराओं, घर के बुज़ुर्गों के साथ बिताए अपने यादगार दिनों, अपनी किसी यादगार यात्रा, धार्मिक या पर्यटन स्थल या अपनी पसंद के किसी भी विषय पर लिखें। हम आपमें से ही पाठकों की राय के आधार पर श्रेष्ठतम प्रविष्ठी को पुरस्कृत करेंगे। इस प्रतियोगिता को आयोजित करने का सबसे अहम मकसद है कॉर्पोरेट जगत और सैटेलाईट चैनलों के लोगों को यह अहसास कराना कि इस देश के कोने-कोने में हिन्दी लिखने वाले और हिन्दी में सोचने वाले लोग बैठे हैं, उनकी सोच जमीन से जुड़ी है और उसके अंदर भाषा की महक भी है। लेकिन दुर्भाग्य से अपने कमजोर अंग्रेजी ज्ञान की वजह से उनकी शुध्द हिन्दी और मौलिक सोच अंग्रेजी के घुटन भरे माहोल में पुष्पित-पल्लवित नहीं हो पाती। इंटरनेट की दुनिया में आने वाला कल हिन्दी वालों का होगा। क्योंकि अब समय आ गया है कि अगर किसी को हिन्दुस्तान में कारोबार करना है अपना माल बेचना है और 70-80 करोड़ लोगों तक सीधे पहुँचना है तो उसे हिन्दी में ही अपनी बात कहना होगी। देश में और दुनिया में कहीं भी कारोबार करने वाली हर कंपनी को अपनी वेब साईट हिन्दी में बनाना होगी और इसके लिए हजारों लाखों हिन्दी लिखने वालों की जरुरत होगी। ये हिन्दी लिखने वाले अमरीका, जापान, रुस या चीन से नहीं आएंगे, यह काम आपको ही करना होगा। बहुत जल्दी ही वह समय आएगा जब देश के कोने-कोने में छोटे से छोटे गाँव में बैठे हर हिन्दी भाषी को घर बैठे लिखने का काम मिलेगा और पैसा भी मिलेगा।आज तो हालात यह है कि जिन मोबाईल कंपनियों और बैंकों को आप करोड़ों रुपये दे रहे हैं उनकी वेब साईट तक हिन्दी में नहीं है। आपको अगर अपने मोबाईल या बैंक की सेवा को लेकर कोई शिकायत करना है तो आप अपनी भाषा में नहीं कर सकते। लेकिन जब आपको मोबाईल बेचा जाता है तो आपको तमाम प्रचार सामग्री हिन्दी में दी जाती है। अगर आप आज ही जाग जाएं तो वह दिन दूर नहीं कि देश की मोबाईल कंपनियों और बैंकों को अपनी वेब साईट हिन्दी में बनाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। और अगर वेब साईटें हिन्दी में बनेगी तो लिखेगा कौन...जाहिर है यह मौका अपको ही मिलेगा....तो हम चाहते हैं कि आप अभी से जागें और इंटरनेट पर हिन्दी में लिखना शुरु करें। हमारे लिए नहीं बल्कि अपने आपके लिए, आपका लिखने का शौक आपके लिए नौकरी का और पैसा कमाने का जरिया हो जाएगा। और जल्दी ही वह दिन भी आएगा जब नौकरी मिलने की योग्यता अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी हो जाएगी।तो तैयार हो जाईये अगर आपके पास कंप्यूटर नहीं है तो किसी साईबर कैफे पर जाईये और हिन्दी लिखने की शुरुआत कीजिए-और अपने साथ अपने किसी साथी को भी ले जाईये ताकि एक साथ दो लोग हिन्दी लिखने के लिए तैयार हो सकें। हमारे लिए आपका लिखा हुए एक-एक शब्द कीमती है।

Tuesday, January 27, 2009

सड़क का कुत्ता करोड़पति

..a.वाकई और उची सोच के बलबूते पर ही हम आगे बढ़ते है इसी का ताज़ा उदहारण है '' स्लम डॉग मिलेनिएर '' इसके निर्देशन करने वाले डैनी बोयल ने उस सुब्जेक्ट पर सोचा जिस पर इंडिया के डारेक्टर सोचभी नही सकते
मुंबई सहित तमाम मेट्रो सिटी की हकीकत को दिखाने की हिम्मत किसी भारतीय ने क्यो नही की सायद उन्हें लगता रहा होगा की इतनी गन्दी फ़िल्म कौन देखना पसंद करेगा !
इसी बात की गहराई डैनी बोयले को समझ आ गई और यही नही इस फ़िल्म में उन्होंने इतने करीब से और इतनी गहराई का परिचय दिया की उसने अपनी अलग पहचान बनेई भारतीय फ़िल्म निर्माता किसी फ़िल्म के निर्माण करने में इतनी गहराई तक नही जाते
मै तो ये भी मानता हु की भारत के बड़े प्रोड्यूसर और दिरेक्टोर सिर्फ़ बड़ी बड़ी सोच के चलते कभी स्लम डॉग जैसे सुब्जेक्ट पर सोचते भी नही या फिर इतनी गहराई तक उनका दिमाग चलता ही नही तभी तो आस्कर अभी तक दूर है फिर भी उम्मीद की जा रही है की ''सड़क का कुत्ता '' करोड़पति ''चायवाला '' ''स्लम डॉग ''ये तमाम नाम एक ही फ़िल्म के है यही फ़िल्म ''गोल्डन ग्लोब '' अवार्ड दिलाने के बाद अब आस्कर दिलाने की उम्मीद जगा रही मै भगवन से दुआ करता हु की ये जरुर से आस्कर जीते देव पटेल का अभिनय भी काबीले तारीफ है

Monday, January 26, 2009

आज

Monday, January 19, 2009

Saturday, January 17, 2009

स्वाभिमान करें अभिमान नही

maine hi ye रिपोर्ट लिखी है , तू तो नही लिख सकता ये तमाम बातें है जो प्रेस लाइन के स्टुडेंट के मुह से मेने सुनी है वे आपस मै कुछ बातें कर रहे थे , उनमे से १ बड़े टिप टाप के कपड़े पहना लड़का खड़ा था वो सभी को उची आवाज़ मै बता रहा था की पत्रकारिता कीये डिग्री कर रहा हु मै तो सिर्फ़ ये करूँगा इतने मै एक लड़के ने बीच मै टोकते हुए उससे कहा भाई बड़ी बड़ी बात करने से कोई अच्छा पत्रकार नही बन जाता , मै उत्सुकतावश वाही रुक गया उनमे वहाश होने लगी मामला बड़ा दिलचस्प हो रहा था उन दोनों मै लडाई हो गई उनके साथ ही तीसरा लड़का खडा था वो भी पत्रकारिता का विद्यार्थी था पर वो एकदम चुप था वाही दोनों लड़के इस बात पर बहस कर रहे थे की मै अच्छा लिखता हु ,मेरी इंग्लिश बहुत बढ़िया है थोडी देर बाद सब बिना नतीजे के घर चले गए फिर भी तीसरा लड़का चुपचाप चला जा रहा था मुझसे रहा नही गया मेने उसे रोका और पुचा क्यों भाई तुम चुप क्योऊ थे तुम भी तो वाही कोर्स कर रहे हो जो वे बहश करने वाले कर रहे है फिर पत्रकारिता के बारे मै क्यो नही बोले
उसका जबाब बड़ा ही सरल था बोला -- भाई मेने भी २ साल तक एक अखबार के लिए रिपोर्टर का कम किया है अब इन्हे कैसे बताऊ की पत्रकारिता वाला hu वे अपने आप को बहुत बड़ा मानने वाले है उन्हें अपने पर abhimaan है !
मेरी बात वे मान ही नही सकते और उनके सामने मै अपना swabhimaan तोड़ नही सकता !
मतलब साफ़ है हर आदमी को स्वाभिमानी होना चाहिए पर अभिमानी कटेई नही

क्या है वास्तविकता

[१ ]जो देखता है वही खरीदता है और जो दीखता है वो ही बिकता है
[२] उपरोक्त कथन मीडिया के लिए सही साबित हो रहा है [आज के समय में ]
[३] आज कल लोग पत्रकारिता कम चटुकारिता जायदा कर रहे है ये सभी पत्रकारों पर लागु नहीं होता
[४] मेरा मन तब दुखी होता है जब लोग हर बात के लिए अप्प्रोअच के लिए बात करते है

Thursday, January 8, 2009

ये है जनता की ताकत

अगर आप भारत में राजनीती करना चाहते है तो अभी भी वक्त है सुधर जाइये , नही तो कोई चांस नही मिलने वाला है क्यूंकि वर्तमान समय के हालत ये है की मुख्यमंत्री को भी जनता चुनाव हारने के लिए मजबूर कर देती है क्यौकी वोट जनता ही डालेगी
यही घटना झारखण्ड के मुखिया शिबू सोरेन के साथ घटी , उन्हें अपने ही शेत्र से चुनाव हारना पड़ा , जी हा मुख्यमंत्री होते हुए चुनाव हारने वाले वे चोथे नेता है ,वे उपचुनाव में हारे,
जनता का जबाब - सोरेन का चुनाव हारना इस बात की और संकेत दे रहा है , की अब समय आ गया है जब जनता ऐसे लोगो की कोई इज्ज़त नही करती जिनकी छवि आपराधिक हो यही प्रमुख कारन रहा है की सोरेन मुख्यमंत्री रहते हुए हार गए
जब मनमोहन सरकार गिरने की इस्थिति में आ गई थी तब उसे बचाने वालो की लाइन में सिबू सोरेन भी खड़े थे , बस यही फार्मूला काम कर गाया और मधु कोडा के स्थान पर सिबू को मुह्यमंत्री बना दिया गया इसे मनमोहन सरकार का तोफहा कहे तो अतिशयोक्ति नही होगी ; उस समय जनता के पास उतनी ताकत भी नही थी की uska विरोध कर सके पर इस उप चुनाव में जनता ने अपने मत का सही प्रयोग करके सिबू को बाहर का रास्ता दिखा दिया और कह दिया हमेसही छवि वाले नेता चाहिए न की आपराधिक ; सिबू के खिलाप अदालत में सामूहिक हत्याकांड और अपने सचिव की हत्या के केश चल रहे है
किसी ने सच ही कहा है
''जनता की सुनो ,स्वाच्या छवि रखो ; वरना जनता है लत मर के बहआर कर देगी ''