Tuesday, November 29, 2016

शिवराज सिंह चौहान के मुख्मंत्रित्व काल के 11 साल पूरे

Shivraj Singh Chouhan to complete 11 years as Madhya Pradesh CM


deepak rai, a news editor publish this news on 29nov 2016.


शिवराज के११ साल : एक विकासपुरुष, सर्वप्रिय जननेता 
दीपक राय, विशेष लेख
कहते हैं कि जिस वृक्ष पर जितने ज्यादा फल लदे होते हैं वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है। मध्य प्रदेश के हमारे मुखिया शिवराज सिंह चौहान इस कहावत के असल उदाहरण हैं। यही कारण है कि प्रदेश के सभी लोगों के बीच शिवराज सिंह चौहान बेहद लोकप्रिय हैं। ११ वर्षों से से प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी सहजता ए सरलता और आत्मीयता ही उनके स्वभाव का असल आभूषण हैं। किसी भी प्रदेश के मुख्यमंत्री जैसे पद पर रहने पर बेहतर योजनाओं ए अच्छे प्रशासन की उम्मीद जनता करती ही है, लेकिन शिवराज जी के रूप में मध्य प्रदेश को ऐसा जन नायक मिला है जो जनता से अपने रिश्ते बनाता भी है और उन रिश्तों को निभाता भी है। 
चाहे व्यक्तिगत जीवन का विषय हो या फिर सार्वजानिक जीवन, शिवराज जी ने मजबूती के साथ रिश्तों को नया आयाम दिया है। एक पुत्र के तौर पर माता-पिता की सेवा हो या फिर एक पिता के तौर पर बच्चों को दिए संस्कार, अपने मित्रों के प्रति आज भी उनका अधिकार और व्यवहार देखते ही बनता है। विदिशा के मां सुन्दरदेवी सेवा आश्रम 7 बेटियों को धर्मपुत्री के तौर पर न केवल शिवराज जी ने उन्हें  पिता का प्यार दिया है बल्कि अब बेटियों के विवाह भी एक पिता के तौर पर कन्यादान के साथ कर रहे हैं। यह तो बात है उनके व्यक्तिगत जीवन के रिश्तों की। लेकिन राजनैतिक जीवन में और बतौर मुख्यमंत्री शिवराज जी ने प्रदेश के हर वर्ग, हर उम्र के लोगों से रिश्ता मजबूत किया है। 
किसी भी सरकार या मुख्यमंत्री की कार्यशैली में व्यक्तिगत सोच की झलक दिखाई देती ही है। माननीय मुख्यमंत्री जी ने अपनी सरकार की हर योजना मानो सामजिक रिश्तों को ध्यान में रखकर बनाई है। लाड़ली लक्ष्मी योजना के जरिये उन्होंने प्रदेश में अपनी भांजियों के भविष्य को संवारा तो मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के जरिये बेटियों के विवाह की चिंता से उनके माता-पिता को मुक्त किया। नि: शुल्क साइकिल वितरण, लैपटॉप, स्मार्ट फोन वितरण से उन्होंने प्रदेश में अपनी भांजे भांजियों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया। मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना के जरिये उन्होंने श्रवण कुमार के तौर पर बुजुर्गों को तीर्थ पर भेजने का असाधारण कार्य किया है यह अपने मां बाप से दूर होती युवा पीढ़ी के लिए एक नजीर बना है। किसान के बेटे होने के नाते अपने किसान भाइयों की चिंता उन्होंने कदम-कदम पर की है। कोई भी आपदा आई हो, वे हमेशा से ही किसानों के बीच रहे।  
लेकिन रिश्तों को बनाना और उन्हें निभाना शिवराज जी ने एक दिन में नहीं सीखा। इसके पीछे उनका एक लम्बा संघर्ष और तपस्या है। पाव-पाव वाले भैया कहलाने वाले शिवराज ने लोगों की भावनाओं, उनकी समस्याओं को बेहद करीब से देखा और महसूस किया है। वे राजनीति में स्थापित होने के बाद आम आदमी के बीच जाने वाले नेताओं में नहीं है बल्कि वे आम आदमी के बीच से उठकर राजनीति के शिखर तक पहुंचे हैं। इसी वजह से वे प्रदेश के हित में जो भी कदम उठाते हैं तो उनकी सोच वही होती है जो अपने परिवार का ख्याल रखते समय परिवार के मुखिया की होती है। 
शिवराज जी के हर वर्ग, हर धर्म के लोगों के प्रति समरसता और सहिष्णुता के भाव भी उनकी शख्सियत को अलग मुकाम देते हैं।उनके इस भाव की वजह है विभिन्न विषयों का अध्ययन। जब भी युवाओं के हित की बात होती है तो उनके विचारों में स्वामी विवेकानंद का दर्शन देखने को मिलता है, जब बात जनता की भलाई की हो तो उनकी कार्यशैली में रामायण की चौपाइयां उद्धत होती नजर आती है। जब जरुरत सख्त प्रशासन की हो तो वे गीता पर अमल करते दीखते हैं और जब अंत्योदय की परिकल्पना को साकार करना हो तो पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार उनके कृतित्व में नजर आते है। 
एक अच्छा इंसान ही अच्छी सोच के साथ काम कर सकता है। एक बेहतर इंसान के तौर पर मध्य प्रदेश को ऐसा मुखिया मिला है जिसकी सोच गांव, गरीब से शुरू होती है।



शिवराज सिंह चौहान
जन्म    5 मार्च, 1959
जन्म भूमि     जैतगांव, सिहोर जिला, मध्य प्रदेश
अविभावक     पिता- प्रेमसिंह चौहान, माता- सुंदरबाई चौहान
पति/पत्नी     साधना सिंह
संतान    दो पुत्र, कार्तिकेय और कुणाल
नागरिकता    भारतीय
पार्टी     भारतीय जनता पार्टी, 
पद     मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश, तीसरी बार
शिक्षा    एमए (दर्शनशास्त्र) बरकतउल्ला विश्वविद्यालय

शिवराज सिंह चौहान का जन्म 5 मार्च 1959 को हुआ। उनके पिता का नाम प्रेमसिंह चौहान और माता सुंदरबाई चौहान हैं। स्नातकोत्तर (दर्शनशास्त्र) तक स्वर्ण पदक के साथ शिक्षा प्राप्त की। सन् 1975 में मॉडल हायर सेकंडरी स्कूल के छात्रसंघ अध्यक्ष। आपात काल का विरोध किया और 1976-77 में भोपाल जेल में बंद रहे। अनेक जन समस्याओं के समाधान के लिए आंदोलन किए और कई बार जेल गए। सन् 1977 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हैं। वर्ष 1992 में उनका विवाह हुआ।

संगठन के पद
-1977-78 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री बने
-1975 से 1980 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के मध्य प्रदेश के संयुक्त मंत्री
-1980 से 1982 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश महासचिव,
-1982-83 में परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य
-1984-85 में भारतीय जनता युवा मोर्चा, मध्य प्रदेश के संयुक्त सचिव
1985 से 1988 तक महासचिव 
-1988 से 1991 तक युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रहे।
-2005 में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किए गए


विधायक-सांसद
-1990 में पहली बार बुधनी विधानसभा क्षेत्र से विधायक 
-1991 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से पहली बार सांसद
-1996 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से पुन: सांसद 
-1998 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से ही तीसरी बार सांसद
-1999 में विदिशा से ही चौथी बार सांसद


लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री
-29 नवंबर 2005 को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई
-12 दिसंबर 2008 को दूसरी बार ली सीएम पद की शपथ
-14 दिसंबर 2013 को तीसरी बार सीएम पद की शपथ ली


जेल भी गए
जेल यात्रा  आपने आपात काल का विरोध किया और 1976-1977 के दौरान भोपाल जेल में निरूद्ध रहे। जन समस्याओं के लिए भी कई बार जेल यात्राएं कीं।

राजनैतिक शुरुआत
1972 में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और फिर इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
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वंशवाद नहीं, कार्यकर्ता ने दिलाई पहचान
राजनैतिक वंशवाद के कारण नहीं एक कार्यकर्ता के तौर पर मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे हैं। उनके व्यक्तित्व में वे सारे गुण है जो उनको इस पद तक पहुंचाने के लिए महत्वपूर्ण है।
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9 साल में पहली रैली, 16 में मिला पद
शिवराज की उम्र 9-10 साल थी। नर्मदा के तट पर एक दिन बूढ़े बाबा के चबूतरे पर उन्होंने हालियों (ग्रामीण मजदूरों) को इक_ा किया और उनसे बोले- दो गुना मजदूरी मिलने तक काम बंद कर दो। मजदूरों का जुलूस लेकर शिवराज नारे लगाते हुए सारे गांव में घूमे। जैत गांव में 20-25 मजदूरों के साथ एक बच्चा नारे लगाते घूम रहा था  मजदूरों का शोषण बंद करोÓ, ढाई पाई नहीं-पांच पाई दो।Ó घर लौटे तो चाचा आग-बबूला हो रहे थे क्योंकि शिवराज के भड़काने से परिवार के मजदूरों ने भी हड़ताल कर दी थी। शिवराज कि पिटाई करते हुए उन्हें पशुओं के बाड़े में ले गए और डांटते हुए बोले- अब तुम इन पशुओं का गोबर उठाओ, इन्हें चारा डालो, जंगल ले जाओ।Ó शिवराज ने ये सब काम पूरी लगन से किए पर मजदूरों को तब तक काम पर नहीं आने दिया जब तक सारे गांव ने उनकी मजदूरी नहीं बढ़ा दी।  उन दिनों देश की युवा शक्ति को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जोडऩे का अभियान चल रहा था। शिवराज जी विद्यार्थी परिषद के सदस्य बने। फिर उन्हें मॉडल हायर सेकेण्डरी स्कूल के छात्र संघ के चुनाव लडऩे के निर्देश मिले। सन् 1975 में 16 वर्ष की किशोर उम्र में वे स्कूल के छात्र संघ के अध्यक्ष चुन लिए गए। छात्र हितों और समस्याओं के लिए लागतार संघर्ष  करते करते वे एक प्रखर छात्र  नेता बनने लगे। धारदार और धारा प्रवाह भाषण के बल पर उनकी लोकप्रियता भी बड़ी। वे राष्ट्रीय मुददों पर भी छात्र-छात्राओं के बीच ओजस्वी वाक-कला से जागरण करते थे। 

प्रदेश में चहुंओर विकास
बिजली
-2003 में विद्युत उत्पादन मात्र 5173 मेगावॉट था, आज 16 हजार 116 मेगावॉट

पानी
सिंचाई का रकबा साढ़े सात लाख हेक्टेयर था, जो आज बढ़कर 36 लाख हेक्टेयर हुआ

गेहूं
-गेहूं का उत्पादन मात्र 73.65 मीट्रिक टन था, जो आज 184.80 लाख मीट्रिक टन हुआ

सकल घरेलू उत्पाद
-वर्ष 2003 में सकल घरेलू उत्पाद 1,02,839 करोड़ था जो आज 5,08,006 करोड़ हुआ

ेलगातार 4 बार मिला कृषि कर्मण अवार्ड

-पिछले ग्यारह वर्ष में शिवराज सिंह चौहान ने जो फैसले लिए वो 60 साल में कभी नहीं लिए गए। यही कारण है कि आज प्रदेश बीमारू राज्य से विकाशील राज्य बन गया है।

खाद्यान उत्पादन
-2004-05 में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 1.43 करोड़ मीट्रिक टन था। वर्ष --2014-15 में यह 3.21 करोड़ मीट्रिक टन हो गया।
-12 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से एक दशक तक वृद्धि प्राप्त करना देश में अप्रत्याशित घटना
-2004-05 में दलहन फसलों का उत्पादन मात्र 33 लाख 51 हजार मीट्रिक टन था, जो वर्ष 2014-15 में लाख 47 लाख 63 हजार मीट्रिक टन हो गया। मप्र आज देश में कुल दलहन उत्पादन का 28 प्रतिशत उत्पादित करता है। 

-प्रदेश का कुल कृषि क्षेत्र बढ़कर 2 करोड़ 23 लाख हेक्टेयर हो गया है
-वर्ष 2006-07 में जैविक कृषि का क्षेत्रफल मात्र एक लाख 60 हजार हेक्टेयर था। वर्तमान में यह 17 लाख 58 हजार हेक्टेयर है।  जैविक खेती के क्षेत्रफल में 10 गुना वृद्धि कर मध्यप्रदेश देश की कुल जैविक खेती का 40 प्रतिशत से अधिक उत्पादन करने वाला राज्य बन गया है।

देश का पहला शौर्य स्मारक मप्र में
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में प्रदेश का पहला शौय स्मारक बनाया गया है, जहां विशिष्ट रूप से शहीदों को स्मरण किया गया है। सीमा पर रक्षा करने में चुनौतियाँ क्या हैं, उसके संघर्ष की गाथा बताई जाती है।

- 24 घंटे बिजली आपूर्ति हर नागरिक को। कृषि उपभोक्ताओं को 10 घंटे बिजली प्रदाय 

पर्यटन क्षेत्र में शिखर पर 
पर्यटन के क्षेत्र में प्रदेश ने पिछले 10 साल में अब तक तकरीबन 80 राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त कर अदभुत उपलब्धि हासिल की है।
इसी वर्ष जुलाई में ही मिले एक साथ 5 प्रतिष्ठित अवार्ड 



डिजिटल योजना से किसानों को फायदा
प्रदेश में 55 हजार 393 ग्राम के 1 करोड़ 40 लाख भू-धारकों के 4 करोड़ 17 लाख अभिलेख का कम्प्यूटरीकरण किया जा चुका है। भूमि नक्शों के डिजिटाइजेशन का काम भी किया जा रहा है। किसानों को खसरा, नक्शा एवं बी-1 की अद्यतन नकल 21 जिले की 134 तहसील में इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन दी जा रही है। 

सफेद बाघ बना गौरव
रीवा में शुरू की गई सफेद बाघ की सफारी
-2016 के सिंहस्थ महाकुंभ को सफलता पूर्वक संपन्न कराने का श्रेय भी मुख्यमंत्री को ही जाता है

दीपक राय
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योजनाएं
मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना
मुख्यमंत्री कन्यादान योजना
लाडली लक्ष्मी योजना
मुख्यमंत्री ग्रामीण सड़क योजना
मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना
मुख्यमंत्री युवा स्व-रोजगार योजना
मुख्यमंत्री युवा इंजीनियर-कान्ट्रेक्टर योजना
नि:शुल्क पैथालॉजी जाँच योजना
मुख्यमंत्री मजदूर सुरक्षा योजना
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मामा ने बदली भांजियों की तकदीर
7 राज्यों ने अपनाई योजना
1 अप्रैल 2007 को प्रदेश में लाड़ली लक्ष्मी योजना शुरू हुई थी। यह योजना हर बेटी को युवा होते तक लखपति बनाने की थी। प्रदेश में आज 23 लाख लाडली लक्ष्मी हैं, जिन्हें इस योजना का लाभ मिल रहा है। योजना के जरिये बेटी के जन्म, उसकी शिक्षा से लेकर विवाह तक परवरिश का जिम्मा सरकार निभाती है। 
योजना: 1 अप्रैल, 2008 को जन्मी बालिका की तकदीर और भाग्य उसी वक्त चमक जाता है जब वह प्रदेश की धरती पर जन्म लेती है। योजना में यह जरूरी है कि बालिका के माता-पिता मध्यप्रदेश के मूल निवासी हों। योजना में बेटी के जन्म लेने के बाद जब वह पाने स्कूल में जाती है और छठवीं में प्रवेश लेती है तो उसे 2000 रुपये, 9वीं में 4000, 11वीं तथा 12वीं कक्षा में प्रवेश पर 6000-6000 मिलते हैं। 21 वर्ष होने पर एक लाख 18 हजार रुपये का ही भुगतान होगा। 
योजना का प्रभाव
-लड़कों की चाह छोड़कर 16 लाख से ज्यादा परिवार ने परिवार कल्याण कार्यक्रम अपनाया
-पोषण आहार से 17 लाख बालिका लाभान्वित हुई
-पिछले शैक्षणिक सत्र में लगभग 7 लाख बालिका ने स्कूल में प्रवेश लिया
-आँगनवाड़ी के जरिये 17 लाख बालिका का टीकाकरण हुआ

ई-लाडली
योजना को ई-लाडली का स्वरूप मिलने से यह पूरी व्यवस्था और भी आसान हो गयी है। अब इच्छुक और पात्र अभिभावक महिला-बाल विकास के कार्यालय के अलावा किसी भी इंटरनेट कैफे या लोक सेवा केन्द्र से ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं। योजना के जरिये सभी भुगतान ई-बेंकिंग से सीधे हितग्राही के खाते में जमा होंगे।


मिला प्लेटिनम अवार्ड
योजना की पारदर्शी बनाने के लिये जन-सामान्य के लिये डब्लयूडब्ल्यू लाडलीलक्ष्मी डॉटकॉम  पर सभी जानकारी अपडेट भी गई। इसके जरिये हितग्राही हर जानकारी, समस्या का निराकरण पा सकते हैं। ई-लाली को स्कॉच प्लेटिनम अवार्ड देकर सराहा गया है। 

7 राज्य ने अपनाई योजना
हरियाणा, उत्तरप्रदेश, दिल्ली झारखण्ड, राजस्थान, बिहार और कर्नाटक राज्य ने इसे अपनाया, वहीं बंगलादेश से एक अध्ययन दल विशेष रूप से मध्यप्रदेश आया, जिसने योजना की पूरी जानकारी हासिल की। यूनाइटेड नेशन ऑफ वूमेन ने भी इस योजना की प्रशंसा की।




किसानों की आय दोगुनी करेंगे 
१८ फरवरी 2016 को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सीहोर जिले के शेरपुर में किसानों के हित की दो महत्वपूर्ण घोषणाएं की। पहली घोषणा थी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लागू करना और दूसरी थी किसानों की आय को वर्ष 2022 तक दुगना करने का संकल्प। प्रधानमंत्री का किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव के लिए इन दो अहम कदमों का ऐलान करने के लिये मध्यप्रदेश के चयन से यह साफ था कि यह वह राज्य है जहां 11 वर्ष पहले खेती-किसानी करना दूभर था। न बिजली थी, न सिंचाई थी और न ही वातावरण। 11 वर्षों में स्थिति पलट गई थी और वे सभी चीज यहां मौजूद हैं जिनसे किसानों का खेती करना आसान हुआ है।


Monday, November 28, 2016

TANTYA BHILL

tantya bhell
tantya bhill
जन नायक टंटया मामा
दीपक राय की रिपोर्ट...
टंटया भील सुनने मंे एक आम नाम लगता है जो आदिवासी लोग रखते हैं। भील का नाम तो हर कोई समझता ही है आखिर मध्य प्रदेष की सबसे बड़ी जनजाति जो है। कुछ बुद्धिजीवी इन नाम को सुनते ही बागी की तस्वीर देखने लगते हैं। एक ऐसे बागी जिसके लिए मातृभूमि और उससे निवासी सबसे पहले थे। ये लोग ही उसकी लिए सबसे प्रिय थे। मालवा-निमाड़ में तो टंटया का नाम सुनते ही उनके सम्मान में शीश झुक जाते हैं। टंटया भील को टंटया मामा के नाम से भी जाना जाता है। टंटया का शब्दार्थ समझें तो इसका अर्थ है झगड़ा इसका एक और अर्थ भी होता है जो आपको आगे पता चलेगा। टंटया तब पैदा हुआ था जब हमारे देष में अंग्रेजों की हुकूमत थी। इतिहासकारों का कहना है कि टंटया के पिता मऊसिंग ने बचपन में नवगजा पीर के दहलीज पर अपनी पत्नी की कसम लेकर कहा था कि उनका बेटा अपनी भील जाति की बहन, बेटियों, बहुओं के अपमान का बदला अवश्य लेगा। नवगजा पीर मुसलमानों के साथ-साथ भीलों के भी इष्ट देवता थे।
जन्म
टंटया भील का जन्म तत्कालीन सीपी प्रांत के पूर्व निमाड़ यानी वर्तमान के खण्डवा जिले की पंधाना तहसील के बड़दा गांव में सन 1842 में हुआ था। वह फिरंगियों को सबक सिखाना चाहते थे। टंटया के पिता एक ऐसे किसान थे जिनके पिता जमीदारों को लगान देकर खेती-बाड़ी करते थे। पिता का नाम भाउसिंह भील था। बताया जाता है कि बचपन में ही गरीबी देखने वाले टंटया की मां चल बसीं। भाउसिंह की पत्नी की मौत के बाद परिवार ने कहा कि वे दूसरी शादी कर लें, लेकिन लेकिन उन्हें हमेशा टंटया के लालन-पालन की ही चिंता सताती रहती थी, उन्होंने शादी से मना कर दिया, जबकि उस समय भीलों में एक से ज्यादा शादी करने की परंपरा भी बलवती थी। उन्हें हमेशा डर सताता था कि सौतन मां से टंटया का बचपन प्रभावित हो सकता है। इसके बाद आखिरकार भाउसिंह ने शादी न करने का फैसला किया और खेती बाड़ी कार्य के साथ टंटया का लालन-पालन किया।
माता के बिना पला टंटया बिल्कुल दुबले-पतले और ऊंचे षरीर का था। इसके साथ ही संघर्षपूर्ण बचपन होने के कारण वह शक्तिशाली हो गया था। कहते हैं जो संघर्ष पूर्ण जीवन जीता है वह कठोर हो ही जाता  है, उनके पिता ने उन्हें पौष्टिक भोजन खिलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, इसलिए टंटया दुबले किंतु शक्तिशाली थे।

टंटया नाम का कारण
इतिहास गवाह है कि आदिवासी इलाकों में कई सालों से जुआर की खेती की जाती है और मध्य प्रदेष का खंडवा इलाके के भील भी जुआर की खेती बहुत अधिक मात्रा में करते थे। हांलाकि वर्तमान समय में अब यह कृषि से लगभग बाहर हो गई है। जुआर का पौधा जब सूखता है तो पतला हो जाता है। इस पौधे को तंटा कहा जाता है। चूंकि टंटया भील भील भी एकदम दुबले पतले थे, इस कारण उनका नाम टंटया पड़ गया।
डकैत की छवि में रॉबिनहुड
टंटया वास्तव में डाका डालने वाला डकैत नहीं था वरन एक बागी था जिसने संकल्प लिया था कि विदेशी सत्ता के पांव उखाड़ना है। वह युवाओं के लिए एक जननायक का काम कर रहा था। कई पुस्तकों में इसका जिक्र है कि तात्या टोपे ने टंटया भील को शिक्षा दी थी कि हमशक्ल रखना कितना फायदेमंद होता है। यही कारण था कि एकमात्र टंटया ने अंग्रेजों और पूरे होल्कर राज्य की नींद उड़ाकर रख दी थी और वे निसहाय जैसे हो गए थे इतिहास गवाह है कि हमशक्ल रखने से कितनी तत्परता से अपने मकसद में कामयाब हुआ जा सकता है। टंटया भी अपने दल में हमशक्ल रखता था। पुलिस को परेशान करने के लिए टंटया एक साथ पांच-छह विपरीत दिशाओं में डाके डलवाता था। उस समय भील विद्रोहियों में जो टंटया के साथ थे उनमें से महादेव शैली, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे।
इतना मजबूत नेटवर्क
टंटया मामा के पास बड़ी-बड़ी टोलियां थीं। वर्तमान राजस्थान के बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, मध्य प्रदेष के बैतूल, धार में टंटया को भीलों का प्रमुख दर्जा था। लूटमार करके वह होलकर रियासत राज्य में जाकर सुरक्षित हो जाता था। अपनी वीरता और अदम्य साहस की बदौलत तात्या टोपे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने टंटया को गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। इसी वजह से वह पकड़ा नहीं जा सका। हालाकि तात्या टोपे द्वारा टंटया की षिक्षा की अधिक जानकारी नहीं मिलती। पुलिस खोजती रहती पर उसे गिरफ्तार करने में असमर्थ रहती। लोग टंटया को डाकू कहते थे पर क्रांतिकारी बनकर जो कुछ भी वह लूटता उसे वह अंग्रेजों के विरुद्ध ही उपयोग में लाता था। गरीबों में बांट देता था, कुछ अंग्रेज तो दबी जुबान से उसे इंडियन रॉबिनहुड तक कह देते थे। वह निमाड़ का पहला विद्रोही भील युवक था। टंटया बड़ा ही बलशाली युवक था। उसमें चमत्कारिक बुद्धि शक्ति थी। उसे अवतारी व्यक्ति तक कहा जाने लगा। वह किसी स्त्री की लाज लुटते नहीं देख सकता था। टंटया के बारे में कहते हैं-
तांत्या बायो, टण्टया खड माटवो।
घाटया खड धान, भूख्या खडं बाटयो॥
अदम्य साहसी
एक बार की बात है जब टंटया भील को पुलिस द्वारा पकड़ा गया तो वह थानेदार का हाथ छुड़ाकर बाढ़ में नर्मदा में कूद गया। पीछे लगे थानेदार से कहा कि मार गोली मैं टंटया हूं। मुझे पकड़ो मैं भागूंगा नहीं। टंटया ने गिरफ्तारी दी। बाद में कुछ और लोगों को पकड़ा गया। तीन महीने जेल में रहकर वह सोच रहा था कि वह चाहता तो नर्मदा से निकलकर भाग जाता। वह क्यों पुलिस के हाथ पड़ता। सहयोगी पोपली, जसुधि ने समाचार भेजा कि जेल तोड़कर भाग निकलो। संग्राम नाम का एक व्यक्ति जेल में डयूटी पर तैनात था। वह टंटया का हितैषी था। उसे वह सही सूचनाएं मुहैया कराता था। जेल से उसे खंडवा ले जाया जा रहा था। वहां वह एक सिपाही की बंदूक लेकर कूद पड़ा और फिर फायर होने पर भी बच गया। एक बार जंगल में घुस जाने पर उसे कोई पकड़ नहीं सकता था।
मुखबिर कर देते थे दगाबाजी
कई बार टंटया इसलिए जेल पहुंच जाता क्योंकि मुखबिर दगा दे जाते, बाद में पुलिस ने जालसाजी से उसे घेर लेती थी। मुखबिरी और दगाबाजी के कारण की टंटया की मौत हो गई थी। टंटया की शहादत 4 दिसम्बर 1889 को हुई। निमाड़ अंचल की गीत-गाथाओं में आज भी टंटया मामा को याद किया जाता है। कई स्कूलों में बच्चों को टंटया मामा के षौर्य की गाथा सुनाई जाती हैं।
आजादी का दीवाना
यह निविर्वाद सत्य है कि हर आजादी के हर दीवाने को तात्कालिक सरकार बागी करार दे देती थी जो भी अपने देष बचाने के लिए अंग्रेजों से निपटता उसे अंग्रेज दुष्मन समझकर बागी निरूपित कर देत थे। चाहे औरंगजेब की मुगल सत्ता हो या फिरंगियों की गोरी सत्ता। क्रांतिकारी टंटया भील ने भी राजशाही और अंग्रेज सत्ता से करीब बारह वर्ष तक सशस्त्र संघर्ष किया तथा जनता के हृदय में जननायक की भांति स्थान बनाया। स्वाधीनता संग्राम में राजनैतिक दलों और शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त के लिए सशक्त आंदोलन किए, लेकिन इसके पहले टंटया भील जैसे आदिवासी क्रांतिकारियों और जनजातियों ने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम लोगों की आवाज बुलंद कर देश को गुलामी से मुक्त कराने का शंखनाद किया था। टंटया भील के रूप में आदिवासियों और आमजनों की आवाज मुखरित हुई थी।
टादिवासियों के हीरो
एक सौ बीस वर्ष पूर्व देश के इतिहास क्षितिज पर 12 वर्षों तक सतत् जगमगाते रहे क्रांतिकारी टंटया भील जनजाति के गौरव है। वह भील समुदाय के अदम्य साहस, चमत्कारी स्फूर्ति और संगठन शक्ति के प्रतीक हैं। वह अदम्य साहस के स्वस्फूर्त स्वाभाविक उदाहरण बन गए इसीलिए अंग्रेज सरकार उन्हें इंडियन राॉबिनहुड कहती थी।
अमेरिकी अखबार में छपे
द न्यूयार्क टाइम्स के 10 नवम्बर 1889 के अंक में टंटया भील की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इसमें टंटया भील को इंडिया का राॉबिनहुड बताया गया। टंटया भील अंग्रेजों का सरकारी खजाना और अंग्रेजों के चाटूकारों का धन लूटकर जरूरतमंदों और गरीबों में बांट देते थे। वह गरीबों के मसीहा थे। वह अचानक ऐसे समय लोगों की सहायता के लिए पहुंच जाते थे, जब किसी को आर्थिक सहायता की जरूरत होती थी। वह गरीब-अमीर का भेद हटाना चाहते थे। वह छोटे-बड़े सबके मामा थे। उनके लिए मामा संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रत्येक भील आज भी अपने आपको मामा कहलाने में गौरव का अनुभव करता है। भीलों के समाजवादी सपने को साकार करना चाहते थे। उन्हें देश की गुलामी का भी भान था।
छापामार युद्ध में निपुण
टंटया बार-बार जेल के सींखचों को तोड़कर भाग जाते थे। छापामार युद्ध में वह निपुण थे। उनका निशाना अचूक था। भीलों की पारंपरिक धनुर्विधा में उनके जैसे षायद ही उस वक्त कोई रहा होे। तीर कमान, लाठिया, फालिया उनका मुख्य हथियार थे, हांलाकि बदलते समय के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए टंटया भरमार बंदूक का उपयोग करने लगे थे। उन्होंने बंदूक चलाना भी सीख लिया था। युवावस्था से लेकर अंत समय तक टंटया का सारा जीवन जंगल, घाटी, बीहड़ों और पर्वतों में अंग्रेजों और होलकर राज्य की सेना से लोहा लेते बीता। टंटया ने अंग्रेज साम्राज्य और होल्कर राज्य की शक्तिशाली पुलिस को बरसों छकाया और उनकी पकड़ में नहीं आए।
जीजा ही बना विष्वासघाती
टंटया की सहायता करने के अपराध मे हजारों व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा सैकड़ों को जेल भेजा गया, लेकिन एक पर रक्षाबंधन के अवसर पर मुंहबोली बहन के घर जीजा के विश्वासघात के कारण उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। टंटया को ब्रिटिश रेसीडेन्सी क्षेत्र में स्थित सेन्ट्रल इन्डिया एजेन्सी जेल (सीआईए) इन्दौर में रखने के बाद पुलिस के कड़े सशस्त्र पहरे में जबलपुर ले जाया गया। टंटया को बड़ी-बड़ी भारी बेड़ियां डालकर और जंजीरों से जकड़कर जबलपुर की जेल में बंद रखा गया जहां अंग्रेजी हुक्मरानों ने उन्हें भीषण नारकीय यातनाएं दीं और उन पर भारी अत्याचार भी किए। टंटया को 19 अक्टूबर 1889 को सेशन न्यायालय जबलपुर ने फांसी की सजा सुनाई। जनविद्रोह के डर से टंटया को कब और किस तारीख को फांसी दी गई यह आज भी पूर्णरूप से ज्ञात नहीं है।
पटरियों के पास समाधि
आम मान्यता है कि फांसी के बाद टंटया के शव को इंदौर के निकट खण्डवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेल्वे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया था। वहां पर बनी हुई एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंटया मामा की समाधि माना जाता है। टंटया मामा द्वारा किए गए कार्यों को निमाड़, मालवा, धार-झाबुआ, बैतूल, होशंगाबाद, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में लोगों ने अपनी लोक चेतना में उसी तरह शामिल कर लिया। जिस तरह लोक देवता पूजित होते हैं। टंटया मामा की सबसे अधिक गाथाएं निमाड़ अंचल में रची गईं। मालवी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में भी टंटया भील का चरित्र गाया जाता है। मध्यप्रदेश सरकार ने जनजाति प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एक लाख रुपए का जननायक टंटया भील सम्मान स्थापित किया है। यह सम्मान शिक्षा तथा खेल गतिविधियों में उपलब्धि हासिल करने वाले प्रदेश के एक आदिवासी युवा को प्रतिवर्ष प्रदान किया जाएगा।
मध्य प्रदेश सरकार का सराहनीय प्रयास
गणतंत्र दिवस परेड 2009 में मध्यप्रदेश की झाकी इंडियन राॉबिनहुड जननायक टंटया भील ने राजपथ की शोभा बढ़ाई। जनसंपर्क विभाग मप्र के लिये इस झाँकी का निर्माण मेसर्स आरएस भटनागर एण्ड संस नई दिल्ली के द्वारा किया गया था।
स्कूली बच्चे पढ़ेंगे वीर का पाठ
मध्य प्रदेश सरकार ने विगत दिनों निर्णय लिया है कि स्कूली बच्चों को गीतासार के साथ शहीदों की गाथाएं भी पढ़ाई जाएंगी। स्कूली पाठ्यक्रम में खेती बाड़ी का पाठ शामिल करने के अलावा टंटया भील, नायक शंकर शाह, रघुनाथ शाह जैसे शहीदों की गौरव गाथाएं पढ़ाई जाएंगी। जिससे बच्चों में अपना मध्य प्रदेश का भाव मजबूत हो। स्कूली शिक्षा विभाग की समीक्षा करते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उक्त निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री का कहना है कि  टंटया जैसे वीर हमेशा ही युवाओं के लिए एक जननायक का काम करेंगे।
इन वीरों से थी दोस्ती
भील विद्रोहियों में जो टंटया के साथ थे उनमें से महादेव शैली, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे। इनके पास बड़ी-बड़ी टोलियां थीं।
प्लासी युद्ध के बाद से विद्रोह
आदिवासियों के इन विद्रोहों की शुरुआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही शुरू हो गई थी और यह संघर्ष बीसवीं सदी की शुरुआत तक चलता रहा। आदिवासियों के इलाके में बाहरी मैदानी क्षेत्रों के लोग यानि साहूकार, व्यापारी और ठेकेदार घुसते रहे। इन्हें दिकू कहा जाता था और ये संथालों के शोषक थे तथा उनकी घृणा के पात्र थे। ब्रिटिश शासन इनके संरक्षक के रूप में काम करता था। इसके अलावा आदिवासियों में प्रचलित सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा को मान्यता न देकर ब्रिटिश कानून व्यवस्था में निजी स्वामित्व को ही मान्यता दी गई थी जिससे आदिवासी समाज में तनाव की स्थिति पैदा होते देर न लगी। ईसाई मिशनरियों को भी आदिवासियों ने अपना विरोधी समझा। क्योंकि, वे आदिवासियों के धार्मिक विश्वास पर चोट पहुंचा रहे थे।
यहंा से बागी बन जाते थे आदिवासी
अंग्रेज सरकार के वन कानूनों ने भी आदिवासियों को अंग्रेजी शासन का विरोधी बना दिया। यह स्थिति देश के सभी आदिवासी इलाकों में एक सी थी। फल यह हुआ कि शुरू से ही छिटपुट हिंसक विद्रोहों के रूप में आदिवासियों की नाराजगी प्रकट होने लगी।
आदिवासियों का यादगार संघर्ष
पूर्वी भारत के आदिवासी समुदायों ने लंबा संघर्ष किया। मोआमारिया विद्रोह 1769 में शुरू होकर तीस साल तक चलता रहा। इसी प्रकार चकमा लोगों ने भी उसी दौरान विद्रोह किया। हो, खसिया, सिंगफो और अका जनजाति के लोगों ने उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक में ब्रिटिश शासकों की नाक में दम कर दिया।
...और उमड़ पड़ा विद्रोह
जब मध्य प्रदेष मेें टंटया एक हीरो के तौर पर उभरे थे तभी से भारत के अन्य इलाकों के आदिवासी भी एकलय हो चुके थे। सभी का उद्देश्य एक था, वे अंग्रेेज मुक्त भारत चाहते थे। असम के वनांचल के गारों, अबोरों और लुशाइयों ने भी उन्नीसवीं सदी के मध्य में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। असम में कछार इलाके में 1882 में नागाओं ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया। उड़ीसा में गंजम के आदिवासियों ने और कटक के पाइकों ने विद्रोह किया। 1885 में पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और कटक के संथालों ने जबरदस्त विद्रोह किया। उसके बाद खेरवाड़ अथवा सफाहार आन्दोलन उठा जो अंग्रेजों के राजस्व बन्दोबस्त कानून के खिलाफ था। उधर पूर्वी समुद्र तट में स्थित विशाखापट्टनम में कोरा मल्लया नाम के व्यक्ति के नेतृत्व में लोग उठ खड़े हुए। गोदावरी की पहाड़ियों में 1879-80 में रम्पा विद्रोह हुआ, जिसका केंद्र था चोडावरम का रम्पा क्षेत्र। यहां के पहाड़ी मुखियों याने मुट्टादारों ने अपने स्वामी मनसबदार के खिलाफ विद्रोह कर दिया और बाद में यह अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में बदल गया। क्योंकि, अंग्रेजी शासन मनसबदार को सहायता दे रहा था। दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में और महाराष्ट्र के वनांचल में भी आदिवासियों ने ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध संगठित विद्रोह किए। रांची के दक्षिणी इलाके में 1899-1900 में हुए बिरसा मुण्डा के प्रसिद्ध विद्रोह को कौन नहीं जानता। बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा आदिवासियों ने जो विद्रोह किया वह भारत के आदिवासी विद्रोह में सबसे प्रखर माना जाता है। मैदानों से आए व्यापारियों, साहूकारों और ठेकेदारों ने मुण्डा समुदाय में प्रचलित सामूहिक भू-स्वामित्व की पारंपरिक व्यवस्था को जिसे खूंटकट्टी भू-व्यवस्था कहा जाता था। उसे ध्वस्त कर दिया था। इन बाहरी लोगों की बेगारी से मुक्त होने के लिये मुण्डा लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन काम नहीं बना, उल्टे ब्रिटिश शासन ने शोषकों का ही पक्ष लिया। तब मुण्डा लोगों ने विद्रोह की शरण ली।
1842 से मध्य प्रदेश में आग
मध्यप्रदेश में भी गोंड और भील आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शस्त्र उठाए। 1842 के बुन्देला विद्रोह के समय उन्होनें लोधियों और बुन्देला ठाकुरों का सहयोग किया।
इनकी गाथाएं सुनता था टंटया
जब 1857 का विद्रोह हुआ तब नर्मदांचल में शंकरशाह गोंड और उसके बेटे रघुनाथ शाह को उनकी विद्रोहात्मक गतिविधियों के कारण अंग्रेजों ने 1857 में जबलपुर में तोप से उड़ा दिया गया। इसके बावजूद उस इलाके में गोंडों की हिम्मत नहीं टूटी और जबलपुर जिले के मदनपुर के मालगुजार ढिल्लनशाह गोंड, भुटगांव के महिपाल सिंह गोंड, मानगढ़ के राजा गंगाधार गोंड, और नन्नी कोंडा के देवीसिंह गोंड ने विद्रोह किया। सागर के कुनोर गांव के भगवानसिंह गोंड ने भी ऐसा ही किया। उधर, पश्चिमी मप्र हिस्से में बड़वानी के इलाके में खाज्या नायक, भीमा नायक, सीताराम कंवर और रघुनाथ मण्डलोई ने भी भीलों को बड़ी तादाद में एकत्र करके ब्रिटिश अधिकारियों की नाक में दम किया।
अपने हक मारे जाने से आक्रोष
जनजातीय विद्रोहों की यह सूची सिर्फ एक बानगी है। असल में पूरे भारत में अंग्रेजी शासन की रीति-नीति के कारण आदिवासियों ने विद्रोह किया। अपने सीमित साधनों से वे लंबे समय तक संघर्ष कर पाए। क्योंकि, वनांचल में गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का उन्होंने उपयोग किया। सामाजिक रूप से उनमें आपस में एकता थी और अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाने की उन्हें चिंता भी थी। इन बातों ने उनमें एकजुटता पैदा की और वे शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए।
साधनों की कमी बनी समस्या
टंटया भील का आंदोलन एकलयबद्धता लिए हुए था। वे हर दम अंग्रेजों की नाक में दम करके रखते थे, लेकिन संगठन और साधनों की कमी के कारण हालांकि ये विद्रोह कामयाब नहीं हो पाते थे। इनका सुदूरगामी प्रभाव पड़ा और ब्रिटिश शासन को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि आदिवासियों के हितों और उनकी पारंपरिक संस्कृति की उपेक्षा करना महंगा पड़ सकता है। विदेशी ताकत के खिलाफ होने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम में इन आदिवासियों की भूमिका को रेखांकित किया जाना जरूरी है जिससे आने वाली पीढ़ी उनके उत्सर्ग से प्रेरणा ले सके।
 टादिवासियों पर बहुत कम लेख
भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आदिवासी लोगों के विद्रोह पर अभी तक बहुत कम लिखा गया है। इस महत्वपूर्ण कमी के कारण भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक शून्यता जैसी दिखती है। इस शून्यता को भरने के लिए हमें भारत भर में व्यापक रूप से फैले उन जनजातीय समुदायों के इतिहास को नजदीक से देखना होगा जिन्होंने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। आज हम ऐसे ही एक आदिवासी वीर की बात कर रहे हैं, जिसने पूरी जिंदगी दूसरों के नाम कर दी, लेकिन अपनों से उसे धोखा मिला और देश का लाल आजादी का सूरज न देख पाया। भले ही वह औरंगजेब की मुगल सत्ता हो या फिरंगियों की ब्रितानिया हुकुमत। सभी के सभी अपने नियमों को न  मानने वालों पर क्रूर अत्याचार करते थे, क्रांतिकारी टंट्या भील ने भी राजशाही और अंग्रेज सत्ता से बारह वर्ष तक सशस्त्र संघर्ष किया तथा जनता के ह्वदय में जननायक की भांति स्थान बनाया। स्वाधीनता संग्राम में राजनैतिक दलों और शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त के लिए सशक्त आंदोलन किए, लेकिन इसके पहले टंट्या भील जैसे आदिवासी क्रांतिकारियों और जनजातियों ने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम लोगों की आवाज बुलंद कर देश को गुलामी से मुक्त कराने का शंखनाद किया था। टंट्या भील के रूप में आदिवासियों और आमजनों की आवाज मुखरित हुई थी। करीब एक सौ बीस वर्ष पूर्व देश के इतिहास क्षितिज पर 12 वर्षों तक सतत् जगमगाते रहे क्रांतिकारी टंट्या भील जनजाति के गौरव हैं। वह भील समुदाय के अदम्य साहस, चमत्कारी स्फूर्ति और संगठन शक्ति के प्रतीक हैं। वह अपने अदम्य साहस के बल पर आज एक उदाहरण बन गए।

यहां गाया जाता है चरित्र
टंटया मामा की सबसे अधिक गाथाएं निमाड़ अंचल में रची गईं। मालवी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में भी टंट्या भील का चरित्र गाया जाता है। टंट्या भील आज भले ही हमारे बीच न हों पर उनकी बातें आज भी होती हैं उनके किस्से आज भी लोगों को रोमांचित करते हैं। भील आदिवासियों का इतिहास केवल टंट्या भील तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने अपनी जमीन और संस्कृति के खातिर केवल अंग्रेजों से ही टक्कर नहीं ली बल्कि वे राजशाही के दौर में भी अपने राजा की ओर से आक्रमणकारियों से लोहा लेते रहे थे। भीलों की प्रवृत्ति ही आक्रामक और शिकारी होती थी, कोई उनकी जमीन की ओर आंख उठाकर देख यह उन्हें तब भी मंजूर नहीं था और अब भी नहीं है।
आदिवासियों ने ही षुरू किया विद्रोह
टंट्या एक उदाहरण हैं कि आदिवासियों ने भी हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ी थी, लेकिन जब हमें आजादी मिली तो हमने भी उनसे उनका घर यानि जंगल छीनना शुरू कर दिया जिसे बचाने की खातिर वे अंग्रेजों से लड़े थे। इतना ही नहीं हमने उन्हें विकास का भागीदार भी नहीं बनाया, न तो उनके बच्चों को सही दवा मिली न शिक्षा और न ही भोजन, फिर ऐसी आजादी उनके किस काम की।
सरकार की योजनाएं
टंटया भील स्वरोजगार योजनाः मध्यप्रदेश सरकार ने आदिवासी युवाओं के लिए शंटया भील्य स्वरोजगार योजना को मंजूरी दी हैै। इसमें बैंकों के जरिए आदिवासी हितग्राहियों को पचास हजार से पच्चीस लाख रुपए तथा उससे अधिक ऋण मुहैया कराने का प्रावधान है। इस योजना में अधिकतम तीन लाख तक तीस प्रतिशत अनुदान तथा पांच प्रतिशत ब्याज अनुदान की व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा की जाएगी। साथ ही गारंटी सेवा शुल्क भी राज्य सरकार ही वहन करेगा। इस वर्ष इस योजना से जिले के 100 आदिवासी युवाओं को लाभांवित करने का लक्ष्य रखा गया है। वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए जिले मे निवासरत 10वीं पास आदिवासी युवक-युवतियों के लिए बैंको के माध्यम से स्वरोजगार स्थापित करने के लिए आवेदन पत्र निम्नानुसार पात्रता शर्ताें के साथ कार्यालय मप्र आदिवासी वित्त एवं विकास निगम (आदिम जाति कल्याण विभाग) में आमंत्रित किए गए हैं। इसके लिए आवेदक को मध्यप्रदेश का मूल निवासी होना चाहिए। मध्यप्रदेश का अनुसूचित जनजाति वर्ग का सदस्य हो। 10वीं उत्तीर्ण एवं पारम्परिक शिल्पियों एवं पारम्परिक व्यवसायियों के लिए शैक्षणिक योग्यता का बंधन नहीं रखा गया है। आवेदक की आयु आवेदन दिनांक को 18 से 40 वर्ष के मध्य हो। आवेदक किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक, वित्तीय संस्था, सहकारी बैंक का चूककर्ता नहीं हो। आईटीआई, डिप्लोमा, इंजीनियरिंग, अन्य अधिकृत संस्थाओं द्वारा प्रदत्त मॉडयूलर एम्पलायबल स्किल्स प्रमाण पत्र। उद्यमिता विकास कार्यक्रम अंतर्गत प्रशिक्षित हितग्राहियों को सबसे पहले अनुदान देने की व्यवस्था भी रखी गई है।

टंटया की कहानी
बात तब की है जब हिंदुस्तान गुलामी की दास्ता झेल रहा था, उस समय बारिष होती तो ही खेती में अन्न उगता था। उस समय वर्षा के अनुपात में उदर-पोषण करने वाले तथा मालगुजारों, जमीदारों, जागीरदारों तथा साहूकारों के डंडे, यातना व शोषण के साए तले सूखी रोटी खाने वाले किसान ही होते थे। भूखे या आधे पेट ग्रीष्म की भीषण गर्मी हो या शीत की भयंकर ठंड, जंगली तन से अंदर तक कंपकपा देने वाली ठंड मूसलादार बारिश के बावजूद अपने साहस व पुरुषार्थ से मस्ती में चूर रहना ही भीलों की अदम्य क्षमता थी। इन्हीं भील किसानों के बाल बच्चे षाम के समय अपनी मस्ती में चूर दीन दुनिया से बेखबर होकर आनंद का अनुभव करते हुए तन्मयतापूर्वक कबड्डी खेल रहा था। टंटया के कबड़ी.....कबड़ी.....कबड़ी उच्चारित करते हुए विपक्ष के पाले के खिलाड़ी तेजी से पीछे हटते हुए मैदान की अंतिम सीमा तक पहुंच गए। सभी जानते थे कि टंटया की सांस लंबी स्फूर्ति व ताकत बेजोड़ है। टंटया की शारीरिक शक्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि युवावस्था में वह 80 किलोमीटर पैदल यात्रा कुछ ही घंटों में कर लेता था। तथा रुकने पर थकता भी नहीं था।
सिपाही का रुतबा
एक बार की बात है टंटया अपने साथियों के साथ मांडव जा रहा था जैस ही वह नगर की सीमा के प्रवेश द्वार से अंदर घुसने लगा तो एक सिपाई ने उसे उंची आवाज देकर रोक लिया। तब राजतंत्र और एकतंत्र प्रणाली चला करती थी। एक सिपाही भी आज के नगर निरीक्षक से ज्यादा ताकतवर होता था। किंतु अनपढ़, जंगली प्रकृति के युवाओं को किसी का भय नहीं सताता था वे तो अपने अल्हण जीवन में चकनाचूर रहते, हमेषा स्चछंद जीवन जीना जानते थे वे क्यों अंग्रेजों की गुलामी करने लगें? टंटया का दल सिपाही को देखकर हंसते खेलते चलते रहे, सिपाही ने टंटया के उपहास को घोर अपमान समझा और कहा चलो थानेदार साहब के पास चलो, और सिपाही ने रौब झाड़ते हुए डंडे को जमीन पर पटका।
तुरंत टंटया ने अपनी भाषा में कहा, देख रे सिपाही हमें डराने की कोषिष मत कर, हमनें कोई गलती तो नहीं की है जो हम तेरे थानेदार के पास जाकर हाजिरी लगाएं। इतनी जोषीली बातें उस समय कोई नहीं बोल पाता था। सिपाही डर गया उसे वहां की भीड़ के सामने अपनी इज्जत जो बचानी थी वह अपने कथित आत्मसम्मान को बचाने की खातिर चुप रहा। फिर वह सिपाही संभलते हुए टंटया के पास पहुंचा और बोला पुलिस से झगड़ा मत करना। सिपाही के नरम पड़े तेवर देखकर टंटया और उसके साथी थानेदार के पास जाने को तैयार हो गए, टंटया ने कहा, हमने कोई कोई जुर्म तो किया नहीं है फिर डर किसी बात का नहीं है चल तुम्हारे थानेदार से भी मिल लेते हैं। पूरा मामला यह था कि अंग्रेेजों के जमाने और राजषाही के दौर में थानेदार अजीब प्रक्रिया का पालन करवाते थे, उन्हें अपने सम्मान के लिए पहचाना जाता था, जो बेचारे गरीब आदिवासी होते तो जुल्म के डर से उन नियमों को मानने को बाध्य होते थे। उन दिनों मांडव के थानेदार ने भी जनता पर अपना रौब झाड़ने के लिए प्रवेष द्वार के गेट पर अपना एक टोप टांग रखा था। उसने जनता को आते-जाते टोपी को सलाम करने का ढिंढौरा पिटवा रखा था। अपने नियम का पालन हो रहा है या नहीं उसे देखने के लिए ही सिपाही की तैनाती की गई थी। जो टोप को सलाम नहीं करता था उसे सिपाही बेंत से पीटकर दंड देता था, कई बार तो जेलों में भी बंद कर दिया जाता था। टंटया और उसके साथी नियम को नहीं जानते थे। कुछ भील युवकों की उद्दंडता को देखते हुए वहां का थानेदार भी घटना स्थल की ओर रवाना हो गया। जंगली युवकों के इतने दुःसाहस को देखकर थानेदार क्रोध से तमतमा गया। निकट आने पर टंटया ने थानेदार को नमस्कार किया। राम-राम साहब, आपके इस सिपाही ने हमें आपके पास लाया है, जबकि हमने कोई जुर्म नहीं किया है, टंटया बोला? टंटया की उंची आवाज सुनते ही क्रोध भरी निगाहों से देखकर थाने बोला, कहां रहते हो? टंटया तुरंत बोला, खंडवा का जोग बड़दा मे।
थानेदार बोला- मांडव किसलिए आए हो?
राणीजी को म्हेल न, ऊदल की सांग देखण।
थानेदार-तूने हमार टोप को सलाम क्यों नहीं किया?
टंटया- टंगी हुई टोप को देखते हुए, थानेदार का उपहास करते हुए बोला, ये कौन सी बात है साबह, टोप को सलामी क्यों देवें।
थानेदार दहाड़ा........शट अप बास्टर्ड।
गांव के लोगों को उनकी जुबान से कितनी गाली दे दो वे सुन लेत हैं, लेकिन टंटया को अंग्रेजी की यह जुबान खल गई। तुरंत टंटया ने भी जवाब दिया, तू होगा तेरे गांव का थानेदार, हमसे पंगा लेने की सोच भी मत लेना, भील युवक के साहस को देखकर थानेदार भी सकपका गया। थानेदार ने वहां उपस्थित स्टॉफ को देखा, वहां 3 सिपाही ही थे, वह मन ही मन सोचने लगा कहां ये भील युवक अपनी जान हथेली पर लेकर चलते हैं इनसे बहस करना अपनी जान गवांने जैसा है फिर माहौल को संभालते हुए थानेदार टंटया के पास पहुंचा और बोला, तुम तो तीर-वीर ऐसे टांगे हो, जैसे बड़े षूरवीर हो।
टपनी ताकत को आंककर टंटया बोला- साहब अजमाकर ही देख लीजिए न। उस दुर्दांत थानेदार ने भी सोचा खूब फंसा है भील, इसके बाद भीड़ से एक मासूम बच्चे को पास लाकर उसके सिर पर संतरा रखकर थानेदार बोला, लगाओ निशाना। टंटया ने बेखौफ बाण चढ़ाया और विश्वास से तीर चला दिया, तीर सीधे ही बच्चे के सिर पर रखे संतरे पर लगा।
इसके बाद टंटया ने थानेदार पर निशाना साध लिया और कहा, चल थानेदार साबह अपनी ये टोपी उतार और यहां के लोगों को प्रणाम कर.......इस दौरान सभी सिपाही डरकर भाग गए। थानेदार ने ऐसा निषाना जीवन में पहली बार ही देखा था। इसके बाद थानेदार ने पसीना पोंछते हुए वहां खड़े लोगों से कहा, प्रणाम। इतना सुनते ही टंटया दोस्तों समेत वहां से गायब हो गया।
पिता की वृद्धावस्था
पिता भाऊसिंह की बढ़ती उम्र ने टंटया के जवानी में आने तक धीरे-धीरे पारिवारिक रूप से उसे जिम्मेदार बना दिया। टंटया खेती की ओर ध्यान देने लगा। टंटया ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। अब तक टंटया एक पुत्र का पिता भी बन चुका था। टंटया के बेटे का नाम किशन रखा था जो भगवान कृष्ण के नाम से संदर्भित था। अंग्रेजों और जमीदारों की मनमानी के चलते किसान इतने निर्बल व सहनशील हो गए थे कि हर समस्या को वे अपना भाग्य समझकर सहन कर लेेते थे। कोई कितना भी अत्याचार किसानों पर कर ले वे चुपचाप सहन कर लेते थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो, इसी कारण उनपर अत्याचार होते ही रहता था। साधारण किसान इतने दुर्बल थे, लेकिन टंटया इन सबमें अपवाद था। अचानक आने वाले कष्टों को सहन की करने की शक्ति तो टंटया को जन्मजात ही मिली थी। वह हर समस्या से आराम से निपट लेता था। अत्यंत दुर्गम स्थान पर रहने वाले भील, कोरकू, भीलाले, राठ्या, पार्या, तड़वी, गोंड, न्हाल, कोल, कोरकू व अन्य दलित व पिछड़़ी जातियों के लोगों के श्रम की कोई सीमा नहीं रहती। उनका श्रम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी मस्ती के साथ गुजरता जाता है। ऐसे लोगों को देखकर महलों में रहने वाले आश्चर्य में पड़ जाते हैं।
सभी की सहायता में धर्म
एक दिन टंटया अपने खेत में था। अचानक उसे दूर से होने वाली आवाज की ध्वनि सुनाई दी। टंटया अपने साथियों से बोला, लगता है अपने गांव में कोई आपदा आई है। टंटया उन इंसानों जैसा कभी नहीं बना जो किसी परेशानी, संकट या विपत्ति में देखकर चुप रहें या ऐसे अनजान बन जाएं जैसे कुछ देखा और सुना ही न होे। टंटया ऐसा कर्त्तव्यनिष्ठ युवक था जो संकट के समय अपनी शक्ति के अनुसार सहयोग करना अपना दायित्व समझता था। टंटया को उतावली पूर्वक गांव की ओर जाते देख साथ काम करने वाले आसपास के लोग अपने-अपने घर की ओर जाने लगे। रास्ते में ही टंटया को गांव का बदहवास इंसान मिला, टंटया ने उसे रोका और पूछा अपने गांव मंे क्या हुआ है। युवक ने सांसें भरते हुए कहा, भैया गांव में आफत आई है। एक भैसासुर घुस आया है जो लोगों की जान के पीछे पड़ा है। ग्रामीण बोला-चलो टंटया तुम भी भाग चलो, जान बच जाएगी तो ऐसे कई गांव बसा लेंगे अभी तो हमें जान बचानी है। वास्तव में हुआ ये था कि गांव में कहीं का जंगली भैंसा घुस आया था। वह इतना मदमस्त था कि जिसे भी अपनी ओर देखता उसे सींगों से निषाना बनाने दौड़ पड़ता था। टंटया दौड़ता हुआ गांव पहुंचा और भैंसा के सामने खड़ा हो गया। कई ग्रामीण सोच में बैठ गए कि देखों कितना पागल आदमी है अपनी जान देने खुद भैंसासुर के पास जा रहा है और कहने लगे कि टंटया आत्महत्या करने पहुंच गया है। शत्रु की गतिविधि का पूर्वाभाष ज्ञात करने का यह अचूक उपाय है कि उसकी आंखों की ओर दृष्टि केंद्रित कर ली जाए। ऐसा ही टंटया ने भी किया। पल भर में भैंसा टंटया की ओर नीचे सिर करके दौड़ गया, इंसान और जानवर की लड़ाई में खास बात यह होती है कि जानवर षरीर से ताकतवर होता है और इंसान दिमाग से। टंटया ने भैंसा के सींगों को पकड़ लिया। गांव के लोग शक्तिशाली पशु और एक इंसान की इस लड़ाई को भयग्रस्त होकर देखने लगे। इसे देखकर आसपास के युवाओं में जोश जागा और सभी ने एकसाथ भैंसा पर हमला बोल दिया। इसके बाद भैंसा निर्जीव होकर जमीन पर जा गिरा। इस प्रकार पूरे गांव को तहस नहस होने से टंटया ने बचा लिया। अब तक टंटया की उम्र 30 साल हो गई थी। यही दौर था जब भारतीयों ने समझ लिया था कि भारतीय लोग अंग्रेजों के राज में सुरक्षित नहीं हैं। लोगों का सोचना था कि अंग्रेज हमपर दिन व दिन अत्याचार बढाते जा रहे हैं। इसके साथ ही सरकार मालगुजारी के नाम पर किसानों से फसल का बड़ा हिस्सा ले लेती थी और किसान दो वक्त के भोजन को भी तरस जाते, प्रकृति के प्रकोप को तो वे भोग लेते, लेकिन सरकार के अत्याचार से वे परेषान हो जाते। भाऊसिंह के भलेपन और टंटया की वीरता की खबर मालगुजारों को हमेशा मिलती रहती थी। बात कहीं की भी हो, अगर कोई ताकतवर सामने आता है तो कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगता यही सोच उस समय गांव के मालगुजार की थी वह सोचता था कि अगर टंटया को वहां से बेदखल कर दिया जाए तो अपनी साख बची रहेगी और आगे के समय में हमारा कोई विरोध न कर सके। इसी दौरान एक दिन भाउसिंह की मौत हो गई, पिता की मौत से टंटया अकेला हो गया थोड़ा कमजोर भी महसूस करने लगा, जाहिर है कि अगर घर में पिता की मौत हो जाए तो बेटा को ही सारी जिम्मेदारी उठानी होती हैं। मालगुजार के एक चापलूस ने खबर दी कि मालिक भाऊसिंह तो मर गया है अब टंटया और भी निरंकुश हो जाएगा। मालगुजार ने सुन ही रखा था कि देश विदेश से किसानों के बागी होने की खबरें मिल रही हैं। टंटया ने अगर किसानों से लगान देने से मना कर दिया तो दिक्कत सामने आ जाएंगी। चापलूस ने कहा, अभी बेटी बाप के घर ही है मालिक। यानी टंटया कमजोर हो गया है, मुनीम भी मालगुजार से बोला लोहा गर्म है मालिक हथोड़ा मार ही देना चाहिए। मुनीम बोला, मालिक भाऊसिंह पर अपना चार साल का लगान बकाया है। अभी हम लगान नहीं देने के कारण टंटया से उसकी जमीन छीन सकते हैं। अभी उसके बाप की मौत हुई है तो वह विरोध भी नहीं कर पाएगा। मालगुजार बोला, लेकिन अभी उसके पिता की मौत हुई है हम ऐसा करेंगे तो ठीक नहीं होगा। इसके बाद हालातों को भांपकर मालगुजार ने टंटया को घर बुलाया। टंटया जैसे ही मालगुजार के पास पहुंचा, मालगुजार ने पिता की मौत की खबर लेते हुए दुख जताया और बोला ऐसे समय पर कहना तो ठीक नहीं लगता परंतु क्या करें हमे भी सरकार को जवाब देना है। तेरे बाप की जमीन का चार साल का लगान बाकी है। तू उसे 2 दिन में चुका दे। टंटया बोला, आपसे कुछ छिपा कहां है मालिक? अभी तो हम किसानों को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है, इस साल फसल भी नहीं हुई। मालिक मैं आपको अगली फसल पर कर्जा चुका दूंगा। मालगुजार ने दो टूक कह दिया। अब जमीन तेरी नहीं रहेगी हमें पता है तू कर्ज की व्यवस्था नहीं कर सकेगा, इसलिए अब से तेरे सारे खेत हमारे हुए। दया करो मालिक हमारी जमीन ही तो है जिससे हम अपना पेट भरते हैं। सख्त होते हुए मालगुजार बोला, जमीन तू जोत रहा है तो क्या जमीन का मालिक हो गया। मालगुजार क्रोधित हुआ। टंटया में शक्ति थी, साहस था सामर्थ्य था परंतु कृषक से मजदूर बनकर इसी गांव में काम करना उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचा देता। वह सुन्न जैसा हो गया, आंखों के सामने अंधेरा छा गया। समस्या से निपटने के लिए टंटया ने अपनी पत्नी काजलबाई और बेटा किशन को उसके मायके भेज दिया। अब टंटया जमीन विहीन हो चुका था। वह सोच रहा था कि मजदूरी न करनी पड़े इसलिए उसने अपने पिता के दोस्त शिवा पाटिल काका के पास जाने का सोचा। षिवा पाटिल वह आदमी था जिसने टंटया के पिता भाउसिंह की जमीन लेकर साझा में खेती करता था यानी उस जमीन पर टंटया का भी हक था। शिवा काका खंडवा के पोखर गांव में रहता था। एक दिन टंटया अपनी लाठी उठाकर पोखर गांव पहंुच गया, शिवा पाटिल ने टंटया को देखा तो उदास होने का कारण पूछ लिया, टंटया ने भाउसिंह की मौत की खबर दी और अपनी जमीन लुटने की कहानी भी षिवा काका को सुना दी। षिवा ने घटना पर दुख जताते हुए कहा चल बेटा जैसी उपर वाले की कलम में लिखा होता है वही होता है, इसके बाद षिवा ने अपनी बेटी को आवाज देते हुए कहा कि बेटी यशोदा जरा पानी तो ला।
यशोदा 19-20 बरस की नवयुवती थी। उसका रंग गेहंूआ, हल्की सी मोटी परंतु हष्ट-पुष्ट, तीखी नासिका व बड़ी-बड़ी कजरारी आंखें थे यषोदा की। जो भी उसे युवती को भर निगाहें देख ले वो उसका दीवाना बन जाए, उसके मुस्कुराने या हंसने पर दोनों गालों में हल्के गड्ढे उभर आने से उसकी सुंदरता हजार गुना बढ जाती थी। रात आराम से कटी दूसरे दिन सुबह उठते ही टंटया खेत चला गया। फिर नहा धोकर वह पास की प्रसिद्ध मजार पहुंच गया, हिंदू मुस्लिम पर टंटया ने कभी फर्क नहीं समझा। फिर घर पहुंचा तो यशोदा ने शिकायती लहजे में टंटया से कहा, मैं कबसे तेरा रस्ता देख रही थी। टंटया चूंकि षादीषुदा था तो उसने यषोदा की ओर ज्यादा ध्यान देने उचित नहीं समझा। भोजन करने के बाद टंटया सो गया, लेकिन उसे नींद नहीं आई। एक दिन शिवा पाटिल खंडवा गया तो यशोदा से उसकी बात हुई। यशोदा ने कहा सुन टंटया तेरी जमीन को लेकर मेरे बापू की नीयत ठीक नहीं लग रही है, कल पटवारी को बुलाया था इस लिए ही वह खंडवा गया है। मैं तुझे सावधान कर रही हूं। पर इस बात को टंटया ने हंसकर टाल दिया उसे लगा कि रिष्ते का चाचा कभी भतीजे से दगा तो नहीं करेगा। रात में जब शिवा खंडवा से लौटा तो टंटया ने साझा जमीन की बात निकाली। जमीन के बारे में सुनते ही शिवा काका ने कहा, कहां की जमीन बेटा, तेरे बाप का यहां कभी कोई खेत नहीं रहा है। तू चाहे तो मेरे ही खेत में मजदूरी कर सकता है। इतना सुनना ही था कि टंटया को क्रोध सातवे आसमान पर पहुच गया, टंटया बोला वाह रे काका मेरे खेत और मैं ही मजदूरी करूं जे कहां की रीत है? शिवा भी तैश से बोला-तम अपनी नियत मत बिगाड़ो। यशोदा द्वारा कही गई आशंका सही साबित हुई थी। टंटया को कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस बहस के तुरंत बाद टंटया रात में ही शिवा काका के घर से निकल गया।
सुबह होते ही टंटया बड़दा गांव पहुंचा। अपने झोपड़े और बेलों को सस्ते दामों में बेंचकर नगद राशि ली खंडवा कोर्ट पहुंच गया। एक अनपढ और गांव के भील युवक को न तो नियम का पता था न ही कानून का वह तो हमेषा सोचता था कि कोर्ट न्याय का मंदिर होता है। शिवा पाटिल का पोखर में काफी दबदबा था। छल करने के बाद शिवा कोर्ट में भी जीत गया। टंटया का छोटी सी जमीन पर खेती करने की सोच वाला महल पलभर में भरभराकर ढह गया। देष में अधिकतर लोगों के साथ ऐसा ही होता है कि न्याय के समक्ष व्यक्ति की बदमाशी, झूठ आदि रुपयों के बल पर कोर्ट में जीत जाता है। अंत में टंटया को कुछ नहीं सूझा, वह अपने सभी पैसे भी गंवा बैठा था। एक दिन टंटया षिवाकाका के खेत पहुंच गया और खेत में काम कर रहे मजदूरों को भगा दिया। टंटया की हुंकार देखकर पूरा गांव सहम सा गया। शिवा पाटिल की शिकायत के बाद पुलिस ने टंटया को गिरफ्तार कर लिया और जेल में डाल दिया। न्यायाधीश ने टंटया को एक साल की कैद सुनाई। उसे नागपुर सेंट्रल जेल भेज दिय गया।
टंटया को जेल का पहला अनुभव हुआ। आधापेट कच्चा पक्का भोजन शरीर निचोड़ लेने वाला काम। बात बात पर पशुओं की तरह व्यवहार। जेल के प्रहरियों द्वारा किया जाने वाला अपमान, टंटया जैसे स्वाभिमानी को अंदर से तिलमिलाकर रख देती थी। इतिहास गवाह है कि सत्ता का संचालन शक्ति से होता है। यदि शक्ति का दुरुपयोग असहाय की सहन क्षमता से अधिक किया जाता है तो ह्दय में विद्रोह का बीज अंकुरित होना प्रारंभ हो जाता है। एक साल यातनाएं झेलने के बाद टंटया जेल से षिवा काका के गांव पोखर आ गया। वह यहां क्यों आया था यह तो खुद टंटया भी नहीं समझ पाया था, हो सकता है कि षायद पोखर गांव में यषोदा के करीब आना चाहता रहा होगा या फिर जमीन पर हक पाने के तरीके ढंूढने की कोषिष कर रहा था। यहां पर निहाल नामक युवक ही उसका सच्चा साथी था। अब टंटया ने पोखर में ही मजदूरी शुरू कर दी।
गांव के लोगों ने टंटया के प्रति गलत हवा बनानी षुुरू कर दी थी, लोग कहते थे कि जो जेल भोगकर आया हो वह अच्छा इनसान नहीं बन सकता। अब टंटया खुद को अकेला समझकर जिंदगी से जैसे तंग आ गया था। एक दिन टंटया गांव में रेवापुरी महाराज के पा पहुंच गया वे एक माने जाने पंडित थे, प्रदेष भर में उनकी चर्चा थी। टंटया नेे सोचा क्यों न महाराज जी के चरणों में ही जीवन बिताया जाए, एक तरह गांव से बहिष्कृत होने के बाद भी टंटया रेवापुरी महाराज के चरणों में जीवन बिताने लगा, एक तरह से गांव के लोगों के न चाहने के बाद भी वह पोखर में रहने लगा तो यह गांव वालों को चुनौती से कम नहीं लगा। अतः गांव वाले उसे भगाने के लिए अलग-अलग साजिषें रचनी षुरू कर दीं। टंटया गांव वालों की साजिषों से अनजान था। पोखर में राजपूत परिवार के सबसे ज्यादा लोग बसा करते थे वैसे भील परिवार कम ही थे यही कहीं 15 परिवार ही बसते रहे होंगे। इतने कम भीलों के बीच भी टंटया को कभी सहानुभूति नहीं मिली, टंटया से मिलने से पहले लोंगों के मन में पुलिस का भय बैठ जाता था, अब तक पोखर के लोगों ने टंटया को चोर उचक्के के रूप में प्रचारित कर दिया था, कहीं भी छोटी बडी घटना होते ही टंटया पर आरोप मढ दिए जाते थे, परंतु टंटया ने कभी किसी बात की फिक्र नहीं की पोखर गांव में मराठों के 18 से 20 परिवार ही थे किंतु षिवा पाटिल की मुखियागिरी और संपन्नता से सभी जलते थे जब समय-असमय पर राजपूतों ने टंटया को यषोदा से मिलते देखा तो उन्होंने अवैध संबंधों की हवा फैला दी। इसके साथ ही षिवा को नीचा दिखाना प्रारंभ कर दिया स्वजातीय न होने के कारण अफवाह ने बड़ा रूप धारण कर लिया। जवान बेटी की बदनामी से षिवा यषोदा पर रोक टोक लगाने लगा। वह भली प्रकार समझ रहा था कि राजपूतों का यह कुप्रचार ही है और वे ही बदनामी फैला रहे हैं। टंटया को भी ऐसी जानकारी से क्रोध हुआ, लेकिन दोस्त निहाल ने उसे नियंत्रित किया। पोखर के षिवा पाटिल को अपनी बेटी से टंटया के अवैध संबंधों को लेकर हुई बदनामी की बात हमेषा खलती रही उसने साजिष पूर्वक अफवाह फैलाने वाले राजपूतों पर कार्रवाई करनी चाही, लेकिन राजपूतों में संगठन होने के कारण उसकी एक न चली अंत में षिवा को टंटया ही क्रोध खत्म करने का अच्छा पात्र समझ आया चूंकि अब तक पोखर वासियों ने सभी गांवों में टंटया को बदनाम कर दिया था। एक बार गांव में लूट हो गई पुलिस का आचरण हमेषा से यही रहा है कि जांच के नाम पर निरपराध लोगों को प्रताड़ित करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देती। पुलिस ने संदेह के आधार पर ही हीरापुर गांव से टंटया और खजोड़ा नामक गांव से बिजनियां नामक विषालकाय युवक को पकड़ लिया। बिना अपराध पकड़कर ले जाने से भील युवकों ने पुलिस दल पर हमला बोल दिया। उन्होंने आक्रोष के चलते पुलिस पर तलवार से हमला कर दिया। तब जेल में कड़ी सजा के बारे में कहते हुए टंटया ने बिजनिया को समझाया कि अगर इस हमले में अगर किसी की जान चली गई तो हम सभी को फांसी हो जाएगी। क्रोध से आगबबूला बिजनिया बात समझ गया। टंटया के सुझाव पर एकमत होकर दोनों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया पुलिस ने चोरी और मारपीट के अपराध के तहत दोनों को कोर्ट में पेष कर दिया न्यायालय ने दोनों पर चोरी के आरोपों को गलत बताया। इसके साथ ही पुलिस से मारपीट के आरोप में उन्हें तीन महीने की सजा हुई। सजा काटने के लिए टंटया को जबलपुर जेल भेजा गया तथा बिजनिया को खंडवा की जेल में रखा गया। प्रकृति का भी बड़ा विधान है मानव जीनव कब कैसा परिवर्तित हो जाएगा इससे सभी अनभिज्ञ हैं संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है जिसके जीवन में उसके पास संपूर्ण बागडोर हो, ऐसा इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि मानव मूल रूप से पराधीन है व निष्चित रूप से किसके आधीन है यह कोई नहीं जानता। इस समय टंटया ने कोई अपराध नहीं किया था झूठे आरोप से क्रुद्ध होकर पुलिस पर हमला करना दोनों के बौद्धिक स्तर के कारण स्वाभाविक प्रक्रिया थी। टंटया को पहले पोखर से कैद करना व सजायाफ्ता होना ही अपने आप में पुलिस के लिए स्थायी अपराध हो गया। पुलिस की अनुचित कार्रवाई से व ज्यादती से टंटया का मन मानव की साधारण जीवनषैली से उठने लगा। अब वह मन ही मन विद्रोही हो गया परंतु वह जेल में विवष था। जेल से छूटते ही टंटया ने होल्कर सरकार के राज्य यानी पष्चिमी निमाड़ के सीवना नामक गांव को अपना निवास स्थान बनाया और सीवना में ही खेती बाड़ी करना प्रांरभ कर दिया। यह गांव सीवना पष्चिमी निमाड़ यानी खरगोन की झिरन्या तहसील में था। वहां पर टंटया की बुआ लेहबर जीजी रहती थीं जो उसके पिता भाउसिंह की बहन थी। सारा गांव उन्हें दाई मां कहकर बुलाता था बुआ के तीन बेटे थे, गंगाराम, षोभाराम और मांगीलाल। पोखरवासी दुष्मनों ने जैसे उसे चैन से जीवन न जीने देने की कसम खा रखी थी, दो बार सजायाफ्ता होने के कारण लोगों की निगाहों में टंटया पक्का बदमाष और आदतन अपराधी बन चुका था। उसे अपराधी समझकर गांव वालों ने उससे दूरी बनाई रखी जैसे समाज से निकाल दिया गया हो। समाज में सम्मानित लोग जो अपराध और गुनाहों के बल पर वैभवषाली होने से सम्मानित हुए थे। वे अपराध करते और हर घटना में टंटया का नाम लेते, पोखर के आसपास घटित होने वाली हर घटना को टंटया के नाम पर निरूपित करने की जैसी परंपरा बन गई थी। अंग्रेज सरकार में प्रतिष्ठितों और पुलिस की यातनाएं सहकर भी टंटया भाग्य का लिखा मानकर षांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। अंग्रेजों से क्रुद्ध होकर वह होल्कर राज्य में चला गया। लेकिन सही मायने में होल्कर राज्य में ही उसका सबसे ज्यादा पतन हुआ।
जलिम सिंह षिवा पाटिल का पुत्र और यषोदा का भाई था वह पोखर गांव में चोरी करते पकड़ा गया। षिवा की सहमति से ही राजपूतों ने टंटया को दूर दूर तक नामी बदमाष होने की बदनामी कर रखी थी। षिवा अपनी बेटी की बदनामी का बदला लेने के बजाय राजपूतों के साथ षामिल हो गया व्यक्ति स्वार्थ की खातिर कितना नीचे गिर जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण षिवा पाटिल ही था चूंकि षिवा पाटिल के कई गलत कारनामों में राजपूतों ने ही सहयोग किया था। अतः जालम को बचाने के लिए षिवा ने राजपूतों के संग षडयंत्र रचा उसने योजनाबद्ध तरीक से जेल में जाकर जालम को पाठ पढा दिया। षिवा की योजना के अनुसार जालमसिंह ने पुलिस को बयान दिया- यह सत्य है कि चोरी का माल मेरे घर बरामद हुआ है, लेकिन यह माल मुझे टंटया भील ने संभालने को दिया था। जिसे मैंने अपने घर में रख लिया था। यही नहीं षिवा ने जालिम के बयान की पुंष्टि के लिए गांव के दो युवकों की और गवाही भी दिलवा दी। पुलिस को टंटया भील से एक और बदला लेने का सुनहरा मौका मिल गया। पुलिस ने टंटया को पकड़ने के लिए होल्कर राज्य से सहयोग मांगना पड़ा, क्योंकि पुलिस वहां पहुंच गई। टंटया को गिरफ्तारी की खबर उसके दोस्त निहाल ने दे दी। पोखर से हांफते हुए आए दोस्त निहाल ने सीवना में टंटया को यह जानकारी दी। इसके बाद टंटया ने तीर कमान उठाई और जंगल की ओर भाग गया। पुलिस ने सीवना पहुंचकर टंटया को भगोड़ा घोषित कर दिया। कभी-कभी इंसान पषु-पक्षियों से ज्यादा असहाय हो जाता है। अब टंटया ने जंगल को ही अपना आश्रम बना लिया। उसकी नजरों में जेल से श्रेयस्कर जीवन वनवास ही लगा। वह जंगल जंगल भटकने लगा। अब उसे जंगली हिंसक पषुओं का भय भी नहीं था। प्रतिषोध कभी भी किसी मानव मन की मूल भावना नहीं रही। प्रतिषोध केवल अपमानित मन की प्रतिक्रया है लोगों ने उसके साथ छल किया। पोखर वासियों ने टंटया को दर-दर वन में भटकने को मजबूर कर दिया। टंटया के मन में था कि पोखर के बेइमानों को सजा देकर ही वह चैन की मौत मरेगा। अब वह उदर पोषण करने के लिए वह अकेले दुकेले पथिकों को लूटकर पेट की आग को षांत करने लगा। समाज मेें लूटपाट करना और दुष्मन को प्रताड़ित करके उस पर षासन करना तथा षिवा पाटिल व पोखरवासियों को राजपूतों से बदला लेने की योजनाएं बनाना उसकी दिनचर्या में षामिल हो चुकी थीं। धीरे-धीरे उसने जंगल में समाज द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रताड़ित लोगों का एक गिरोह बनाया और छोटे-मोटे डाके भी डालने लगा। टंटया ने जब मारधाड़ और लूटपाट की कार्रवाई को प्रारंभ किया तो उसे आय भी खेती से अधिक प्राप्त होने लगी, जबकि श्रम बिल्कुल नहीं था। एक साल तक वह पुलिस से बचने और बागियों को एकत्र करते रहा। 1878 की बात है। अधिकांष लोग संपत्ति और वैभव के बल पर ही जीवित रहते हैं। अपना प्रभुत्व समाज में स्थापित करना चाहते हैं परंतु जो वीर होते हैं, बहादुर होते हैं वे केवल मन के उत्साह साहस पर जीवित रहते हैं। इसलिए बहादुर लोग अपमान और अवहेलना की घटनाओं को कभी भूल नहीं पाते। टंटया ने स्वयं को वनवासी जीवन व्यतीत करने एवं स्वयं अपराधी बनाने का मुख्य कारण पोखर गांव के षिवा एवं और राजपूतों को माना। उसे पोखर गांव से इतनी चिढ हो गई थी। गांव का साधारण आदमी भी उसे मिल जाता था तो उससे भी मारपीट करने में हिचकता नहीं था। एक दिन टंटया अकेला जंगल की पगडंडी से अकेला जा रहा था तभी उसे पोखर गांव के राजपूत जमींदार सरदारसिंह का बेटा था। सरदार के तीन बेटे थे कल्लू, भीकू और मोहन। उसे देखते ही टंटया क्रोध से भरकर उसकी ओर दौड़ा। उसकी ख्ूाब पिटाई की और उसे बंधक बना लिया साथ ही रिहाई के लिए राजपूतों से 100 रूपयों की मांग रखी। संपन्न लोगों का सुदृढ संबल पुलिस होती है। सरदार ने थाने में कल्लु के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस तो पहले ही टंटया को खोज रही थी। वह और मुस्तैदी से जंगल में खोज करने लगी। सरदार ने अपने लठैतों को भी पुलिस संग भेज दिया। एक सप्ताह तक दल जंगल में खोजबीन करता रहा, लेकिन कल्लु और टंटया का पता नहीं चल पाया। दोनों दलों के वापस लौटन के बाद सरदार को अपने बेटे की चिंता सताने लगी। उसने गंभीरता से टंटया से संबंधित सूत्र खोजे और पोखर के निहाल पर उसकी नजर गई। वह अकेला निहाल के घर गया, लेकिन वहां निहाल नहीं मिला। निहाल से मजदूरी स्थल पर मिलने सरदार पहुंच गया। इसके बाद निहाल से बोला- बेटा मेरे कुल्लु को बचाकर ले आ। निहाल को उसपर दया आ गई। एक दिन बीहड़ में उसकी मुलाकात टंटया से हो गई 100 रूपये देकर उसने कल्लु को छुड़ा लिया और वापस पोखर आ गया। निहाल सरदार की चालबाजी समझ नहीं पाया। टंटया अब तक पुलिस द्वारा फरार अपराधी का व्यापक प्रचार करने तथा पोखर के राजपूतों और उनके अन्य गांवों के रिष्तेदारों द्वारा अफवाहें प्रचारित करने से बदनाम हो चुका था। कल्लू के बताए मार्ग से ही मोहन सीवना के बीहड़ में अकेले ही घुस गया। मोहन को यह विष्वास था कि टंटया से उसके मि़त्रता संबंध होने के कारण उसपर ज्यादती नहीं करेगा।़ टंटया को पता चला तो वह पोखरवासी को खोजने पहुंच गया। जैसे ही मोहन ने सामने टंटया को देखा तो रोना षुरू कर दिया। इस तरह मोहन ने टंटया से गहन मित्रता का ढोंग रचकर चार दिन और रात तक उसके साथ रहा। मोहन ने बार बार टंटया से पोखर चलने को कहा। साथ ही कहा कि जमीदार पिता से कहकर पुलिस के सारे मामले खत्म करा देगा। सीधा सरल टंटया बेचारा मोहन के बहकावे में आ गया। इसके बाद टंटया और मोहन खजोड़ा नामक गांव में टंटया के मित्र बिजनिया के घर गए। बिजनिया ने दोनों का अत्यंत आवभगत के साथ दोनों को भोजन कराया। मोहन ने अपनी वाकपटुता से बिजनियां को भी संतुस्ट किया। खजोड़ा गांव से दोनों रवाना होकर रात तक पोखर पहुंच गए। गांव पहुंचकर टंटया अपने मित्र निहाल के घर रात्रि विश्राम के लिए रह गया और मोहन अपने घर पहुंच गया। रात में निहाल ने टंटया को समझाया कि इसकी बातों में मत आओ परंतु टंटया मोहन की छलावे में फंस चुका था। टंटया सरल स्वाभाव का प्राणी था। दूसरे दिन सुबह टंटया सरदार से मिलने जैसे ही पहुंचा वहां छिपे पुलिसवालों ने उसे घेर लिया। विष्वासघात करते सबने उसे दबोच लिया। टंटया घायल षेर की तरह हथकड़ियों में जकड़ा हुआ था। उसे खंडवा जेल के सख्त पहरे में बंद कर दिया गया। उसी दिन टंटया के मित्र और विष्वासपात्र दौलिया भील को भी पुलिस पकड़कर खंडवा लाई थी। इसके दूसरे दिन ही खजेड़ा गांव के मित्र बिजनिया भील को भी पुलिस ने पकड़कर खंडवा लाया। तीनों को ही हवालात में बंद कर दिया गया। 20 नवंबर 1878 का दिन खंडवा के कोर्ट में टंटया को पेष किया गया भारत की बड़ी-बड़ी जेलों की भांति खंडवा की जेल भी बहुत प्रसिद्ध है यहां जाने के लिए केवल एक गेट है उसमें एक दूसरे के उपरांत दो बड़े-बड़े लोहे के फाटक बने हुए हैं उक्त दोनों फाटक कभी भी एक साथ नही खोले जाते थे टंटया के जेल में जाने से पहले ही वहां पर डाके के अपराध में 10 भील सेवक सजा काट रहे थे। टंटया के जेल आने की खबर लगते ही वे सभी टंटया के वार्ड में आ गए। उन्होंने टंटया से जेल की यातनाओं के बारे में बताया और जेल जीवन से मुक्ति की बात कही। टंटया ने बहुत आसानी से कहा कि मैं तुम्हारी समस्याओं को समझता हूं दोस्तों, क्योंकि टंटया पहले भी दो बार जेल जा चुका था। एक दिन वार्डन की पिटाई कर दी गई। जेल में किसी ने षिकायत नहीं की जब पूछा गया तो हर कैदी ने न देखने की अनभिज्ञता जता दी। स्वयं वार्डन भी यह नहीं देख पाया था कि उसे किसने पीटा किंतु खंडवा जेल परिसर में यह हवा फैल गई थी कि वार्डन की पिटाई टंटया ने ही की है। 24 दिसंबर 1878 को रात के 11 बजे के करीब वार्ड नंबर 7 में दौलिया ने उठकर अपने कपड़े उतारे और उन्हें बांधकर लंबा किया फिर उसे कड़े से बांधा फिर उसने 6 फीट उंचाई पर बंधे कड़े में यत्न के साथ चुपचाप कपड़ों की रस्सी को दोनों मुंह मिलाकर उन्हें बल देकर व्यवस्थित किया। देखते ही देखते दोलिया नट की भांति रस्सी द्वारा लोहे की छड़ तक चढ गया। वहां पर दोलिया ने देखा तो कपड़े के पार्ष्व में एक छिद्र नजर आया। इसके बाद उसने छिद्र के आसपास को नाखूनों से कुदेरना प्रारंभ कर दिया। इसके बाद दीवार की एक एक ईट को निकालना षुरू कर दिया। उसने यह काम बिजनिया और टंटया के उत्साहवर्धन के साथ किया दीवार में सुरंग बनने के साथ ही तीनों एक एक करके जेल से बाहर निकल गए। वार्ड नंबर 7 के पास ही 8 नंबर था जहां पर टंटया के भील युवक कैद थे उसकी दीवार 20 मीटर उंची थी। वे एक दूसरे का सहयोग करके उपर तक चढ गए जिन लोगों के पास साहस और कुछ कर गुजरने का संकल्प होता है परिस्थितियां भी उनका ही साथ देती हैं। रात के सन्नाटे में सभी भाग निकले सुदृढ और विषाल जेल से फरारी की घटना को लोगों ने चमत्कार की भांति समझा। लोग आपस में बातें करते कि टंटया चमत्कारी है। उसके पास देवी की कोई ताकत है। वृद्धजन भी टंटया को चमत्कारी मानने लगे क्योंकि उनकी आयु में आजतक कोई कैदी भाग नहीं सकता था। लोगों ने टंटया को मसीहा मान लिया देखते ही देखते टंटया प्रसिद्ध हो गया। टंटया की प्रसिद्धि में अंग्रेज सरकार न विषेष भूमिका निभाई। सरकार ने समाचार पत्रों में टंटया की फोटो खबर छपवाई कि वह पफरार हो गया है। उसपर इनाम रखा। इससे टंटया और चर्चित हो गया। टंटया की फरारी से मालगुजार सरकार, सरकार के चाटुकार और गरीबों का खून चूसने वालों में भय का संचार हो गया। वहीं आम जनता ने टंटया के लिए खुषियां मनाईं। आम जनता जानती थी कि टंटया एक डाकू लुटेरा है, लेकिन उसने कभी भी गरीबों को नहीं सताया। जेल से बाहर आते ही टंटया अपने साथियों के साथ जंगल की ओर भाग गया पुलिस को लाचार देखकर आम जन बहुत खुष हुए। जब मानव के मन में प्राणों का भय व्याप्त हो जाता है तो वह बड़े से बड़े खतरे को भी सहज ही उठाने विचलित नहीं होता। जंगल की घनघोर ठंड हवाएं चल रही थीं, लेकिन भील युवाओं में इनका बिल्ुकुल असर तक न था। इसके बाद वे लोग एक बजाज दंपति के घर पहुंच गए टंटया को देखकर दंपति डर से गए, लेकिन टंटया ने कहा हमें सिर्फ तन ढकने का कपड़ा दे दो बजाज ने सभी को कपड़े दिए। इसके बाद बजाज की पत्नी ने कहा अरे भईया आपके चेहरे देखकर लग रहा है कि आपने कई दिनों से खाना नहीं खाया है। उस महिला ने 6 से 7 लोगों का खाना टंटया और साथियों को दे दिया बजाज दंपति के इस प्रेम को देखकर दौलिया बहुत खुष हुआ। टंटया का एक सदगुण था कि वह परोपकार करने वालों को कभी भूलता नहीं था और अवसर आने पर उनका सहयोग भी करता था। टंटया की इसी नीती का परिणाम आज भी निमाड़ में देखने मिलता है यह धारणा है कि भील बारह बरस में भी बदला लेते है। इस घटना के लगभग 4 साल बाद 1883 में टंटया अपने भगाड़े जीवन में पुनः रम गया। एक दिन टंटया वहीं गांव फिर आया और बजाज दंपति को इतना धन दिया कि उनकी दरिद्रता खत्म हो गई। इस प्रकार टंटया एक गांव से दूसरे गांव दूसरे से तीसरे घूम रहा था। टंटया की प्रसिद्धि इतनी फैल चुकी थी कि गांव के लोग उसे देवता तुल्य मानने लगे थे। टंटया अब गिरफ्तारी से पहले वाला भोला भाला टंटया नहीं रह गया था। वह पहले जैेसे किसी की बातों पर आसानी से विष्वास नहीं करता था। उसने अपने संवदेनषील मन को नियंत्रण में कर लिया था। समय और जमाने की चालाक बाजी ने बदमाषी व विष्वासघात ने उसे सिखाकर उसे मानव की स्वार्थपरायणता से गहरा परिचय करा दिया था। अब वह पुलिस, प्रषासन, विष्वासघाती और संपन्न लोगों का जैसे षोसण करने वालों को अपना दुष्मन समझने लगा था। गरीब जनता के आदर उत्साह और प्यार ने उसमें नव उत्साह का संचार कर दिया था। वह गरीबों दलितों और स्वजाति बंधुओं के सामने बिना ताज का बादषाह बन गया। जंगल और गांवों में टंटया का एकछत्र जैसा राज हो गया। जनता के प्यार ने उसे दायित्व का भान कराया। उसके मस्तिस्क में बडदा के ब्राहृमण द्वारा दी गई भविस्यवाणी के बोल अब गंभीरता से उद्घोषित होने लगे कि जीवन में गौर, ब्राहमण, बच्चे और स्त्री निर्बलों को कभी मत सताना। टंटया ने सोच विचारकर निर्णय लिया कि सरकार और सरकार के पिठ्ठुओं से मुकाबला करना है तो गरीबों में, जाति बंधुओं में निर्बलों से तीखे तेवर वाले युवकों को तैयार करके संगठित करना होगा। इस निष्चय पर वह गांव गांव भ्रमण करने लगा। भ्रमण के दौरान वह गरीबों की यथासंभव मदद करते चलता थ।
पत्नी-बच्चे का रखा ध्यान
टंटया की विषेेषता थी कि वह जितना भी लूटता सभी में बराबरी से बांटता था और अपने हिस्से का कुछ भाग गरीबों को दान दे देता था। इसी बीच वह एक रात अपने ससुराल गया और पत्नी को पैसे देकर वहां से निकल आया। मार्च 1879 को वह एक भील बाहुल्य गांव में पहुंच गया ग्रामवासी खुष होकर उसकी खुषामद में जुट गए होली का त्योहार प्रारंभ हो गया था। इस पर्व पर गांव में टंटया को पाकर गांव वालों ने अपने को खुषनसीब समझा। टंटया के प्रसिद्ध मांस का भोजन बनाया गया। महुए की दारू पूरे गांव वालों को पिलाई गई। सभी ने झूकर होली मनाई। 6 अप्रैल 1879 को टंटया वहां से अपने अनुचरों के साथ खंडवा की ओर रवाना हो गया। यह मिट्टी का समतल मार्ग था मार्ग सुनसान था। यहां से पथिक आते जाते नहीं थे यदाकदा उंट पर या घोड़े पर चढे एक दो पथिक मिल जाते थे। इसी बीच खंडवा की ओर से एक बैलगाड़ी में बारदी गांव के निवासी सरदार और रामजी नाम दो युवक सामान खरीदकर गांव लौट रहे थे। दूर से ही टंटया को देखकर वे भाग गए। सामान को टंटया ने लूट लिया। जून 1879 में आधी रात लगभग टंटया उसके विषाल गिरोह के साथ भिनपान गांव आया कुछ दिन पूर्व ही हिम्मत पटेल को सामने देखकर टंटया की आंखों में उसके झूठे गवाही का दृष्य याद आ गया। उसने हिम्मत से बदला लेने के लिए वह भिनपान गांव में में पहुंचाया हिम्मत यहीं का जमीदार था। उसके पास लठैतों और धन की कोई कमी नहीं थी। पुलिस भी उसके लिए हर पर तैयार रहती थी। अब टंटया ने सारी संभावनाओं को मद्देनजर योजनाबद्ध तरीके से गांव में प्रवेष किया और हिम्मत के घर धावा बोल दिया डाकुओं के आने की खबर से गांव वाले डरकर भागने लगे हिम्मत के लठैत भी भीलों के आगे दुम दबाकर भाग गए। जमींदार का घर लुटने की खबर सुनते ही गांव के लोग हिम्मत के घर के सामने आ गए तथा स्वयं वहां पर टंटया को देखकर वापस भाग गए। टंटया ने घर को घेरकर हिम्मत को पकड लिया और बिजनियां ने हिम्मत के दिल पर गोली चला दी। टंटया ने उसकी पत्नी और बच्चे का बाल भी बांका नहीं किया। इसके बाद टंटया ने हिम्मत के रिष्तेदारों को लूटकर गरीब बना दिया। टंटया ने जिस तरह से हिम्मत से बदला दिया। उसकी खबर पूरे प्रांत में आग की तरह फैल गई थी। पुलिस भी यह खबर सुनकर भौचक्की रह गई और यह सोच में लग गई कि टंटया इतना ताकतवर कैसे हो गया और उसका तंत्र इतना मजबूत कैसे हो गया। अब टंटया को पकड़ना पुलिस और सरकार की नाक की बात बन गई। उच्च अधिकारियों की बैठक में निर्णय लिया गया कि टंटया को जल्द से जल्द पकड़ा जाए। पुलिस ने भी सोचा कि अगर समय से टंटया नहीं पकड़ा गया तो पुलिस कमजोर हो जाएगी और जनता में उसका विष्वास खत्म हो जाएगी। जनता भी कभी पुलिस का सहयोग नहीं करेगी। अब टंटया को पकडने के लिए स्पेषल टीम बनाई गई। अनेक स्थानों से दक्ष पुलिसकर्मियों को बुलाया गया और सिर्फ टंटया को गिरफ्तार करने के लिए विषेस दल का गठन किया गया जो सिर्फ टंटया को पकड़ने के लिए ही काम करने वाला था। पुलिस की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी भिनपान गांव में जिस तरह से टंटया ने प्रतिकार लिया था। उसके बाद से तो गांव वाले भी पुलिस का सहयोग करने को तैयार नहीं थे। पुलिस को पूरा विष्वास हो गया था कि टंटया का दुःसाहस और बढेगा और आगे भी कई घटनाएं घटित हो सकती हैं। पुलिस ने टंटया को जंगल में अलग अलग जगह खोजा पुलिस ने उसका पता बताने वाले को ईनाम देने की भी घोसणा कर दी। पुलिस ने जाहिर सूचनाएं जारी की ढिढौंरा पिटवाया, लेकिन कोई असर नहीं हुआ अंग्रेज सरकार ने भूमि कर वसूलने के लिए एक एक कर्मचारी को नियुक्त कर रखा था जिन्हें मालगुजार कहा जाता था। जनता से निराष होकर पुलिस ने मालगुजारों की ओर ध्यान लगाया। अधिकारियों ने सोचा कि मालगुजार सरकारी कर्मचारी होकर जनता से प्रत्यक्ष संपर्क में हैं तथा अधिक रूप से संपन्न भी हैं। अतः अधिकारियों ने मालगुजारों की संपत्ति लूटी जाने और भय पुरस्कार का प्रलोभन देकर टंटया को पकड़वाने के लिए सहमत किया मालगुजारों को हिम्मत की हालत के बारे में पता था। एक बार पुलिस अधिकारी ने एक मालगुजार की सूचना के आधार पर पुलिस के 100 से ज्यादा सिपाही अपने अपने हथियार लेकर जंगल की ओर रवाना हो गए। रात में एक समूह में सोऐ भीलों को पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया ओर उन्हें बांध दिया। दरअसल पुलिस ने 14 भीलों को इसलिए पकड लिया था कि उसे भ्रम हो गया था कि ये युवक टंटया और उसके साथी थे टंटया को पुलिस ने उसके 13 साथियों संग पकड़ लिया है। यह खबर पुलिस ने हर तरफ फैला दी। पुलिस अधिकारी अपने पर फूले नहीं समा रहे थे। सभी अधिकारी डींगे मारने में व्यस्त हो गए। पकड़े गए भील सरदार के खुद को टंटया भील कहने पर सभी ने विष्वास किया, क्योंकि उस समय टंटया को पहचानने वाला कोई भी पुलिसकर्मी नहीं मौजूद था। जिस पुलिस अधिकारी ने टंटया दोलिया और बिजनिया को पहले गिरपफतार किया था। वह भी खंडवा आया उसने जैसे ही पकड़े गए। लोगों को देखा तो कह दिया कि यह टंटया नहीं है और यह दौलिया है। ऐसा सुनते ही पुलिस वालों के होष फाक्ता हो गए। उन्हें सहज ही विष्वास नहीं हुआ षिनाख्त करने के लिए भागदौड़ की, लेकिन सब व्यर्थ वह दोलिया ही था दौलिया को बंदी अवस्था में कोर्ट भेजा गया। आनन-फानन में पुलिस ने हिम्मत की मौत के मामले में दौलिया के सम्मिलित होने के सबूत जुटाए। न्यायालय ने सबूतों के आधार पर दौलिया को आजीवन कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेजने का हुक्म दिया। इसके बाद दौलिया को कालापानी भेजने से पहले जबलपुर जेल भेजा गया। जब टंटया को पता चला की मालगुजार ने लालच में आकर 13 साथियों को गिरफ्तार कराया तो वह गुस्से में लाल हो गया और आगे की योजना पर काम करने लगा। इसके बाद दौलिया ने मालगुजार के घर हमला बोल दिया और मालगुजार को तडपा तडपाकर मार डाला। अंग्रेज सरकार जब किसी को काला पानी की सजा देती थी तो उसे अंडमान निकोबार द्वीप भेजा जाता था, लेकिन सभी सजा पाए कैदियों को साल में एकसाथ वहां भेजा जाता था। अतः एक साल तक दौलिया को जबलपुर जेल में ही रहने की व्यवस्था की गई जबलपुर जेल में ही दौलिया की मुलाकात डाके की सजा भुगत रहे अपने एक साथ हीरिया से हुई। यह 1880 की घटना है। दोनों दोस्तों ने बारीकी से अध्ययन किया और जेल से भागने की योजना बनाने लगे। एक रात खंडवा जेल जैसी क्रिया करके दौलिया और हीरिया ने जेल से मुक्ति पा ली। यह खबर जैसे ही जेलाध्यक्ष को मिली तो वह जेल के अंदर गया और दौलिया को वहां न पाकर सुन्न होकर बेहोष हो गया। जबलपुर जेल से कैदियों के भागने की खबर आग की तरह पूरे प्रदेष में फैल गई और पुलिस की बहुत किरकिरी हुई। अधिकारियों ने सोचा कि हमले दौलिया को आम कैदी मानकर बड़ी भूल की थी। टंटया ने दौलिया और हीरिया के मिलने पर जष्न मनाया। एक दिन सुबह टंटया दौड़ा-दौड़ा किसान की वेषभूषा में पुलिस थाने पहुंच गया और बाहर बैठे एक बंदूकधारी सिपाही की उपेक्षा करके अंदर घुसने लगा। सिपाही ने उसे ललकारकर कहा, ऐ रुक कहा जा रहा। भयग्रस्त होने का नाटक करते हुए टंटया बोला- मैं सिर्फ थानेदार साहब को ही जानकारी दूंगा।
इतने में थानेदार आ गया और उसने टंटया से पूछा- क्या बात है क्यों हंगामा करता है। टंटया ने डरते हुए कहा- साहब मुझे ईनाम दोगे तो ही मैं आपको बताउंगा। थानेदार ने टंटया के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ठीक है बता, तो टंटया बोला-साहब मैंने जंगल में टंटया को देखा है, वह आराम कर रहा है। टंटया का नाम सुनते ही थानेदार के पैरों तले जमीन खिसक गई, लेकिन वह संभलते हुए और इनाम के लालच में पड़ते हुए बोला चल मुझे रख ले वहां। इसके बात टंटया पैदल और थानेदार घोड़े पर सवार होकर जंगल की ओर चलने लगे। उत्साहित थानेदार टंटया की गिरफ्तारी पर स्वयं की वीरता का स्मरण करके भविष्य के सपने बुनने लगा, उसकी हालत षेखचिल्ली की भांति होने लगी थी। घोड़े पर सवार चलते गया टंटया थानेदार को विभिन्न मार्गों से घुमाता हुआ जंगल की ओर ले गया। टंटया के सुझाव पर थानेदार ने घोड़े को एक जगह बांध दिया और साथ साथ सघन वन में घुस गया। इसके बाद टंटया ने अपना रूप दिखाया तो थानेदार डर गया, टंटया ने थानेदार के हर वस्त्र को उतार दिए और नंगा करके भगा दिया। बताया जाता है कि थानेदार रात के अंधेरे में चौकी पहुंचा था। इसी बीच कोर्ट ने बिजनिया की फांसी की सजा सुना दी। यह खबर सुनकर टंटया की हालत चिंताजनक हो गई। वह षोक और गम में डूब गया। जैसे किसी व्यक्ति का जवान पुत्र मौत की कगार पर हो और वह कुछ न कर पा रहा हो ऐसी ही स्थिति टंटया की हो गई थी। बिजनियां के फांसी के दिन उसने एक भी हथियार हाथों में नहीं उठाए और हर पल रोता रहा। इसी बीच कोदवार नाम गांव के एक पटेल जिसे सब कोदवार पटेल कहते थे ने सरकार के प्रति स्वामी भक्ति और पुरस्कार के लोभ में टंटया को गिरफ्तार कराना चाहा। कोदवार पटेल का यह दुर्भाग्य था कि उसकी हर गतिविधि की सूचना सबसे पहले टंटया को मिल जाती थी क्योंकि वह जहां रहता था। वो गांव भीलों की जनसंख्या से भरा पड़ा था। 1 अप्रैल 1881 को टंटया कोदवार गांव पहुंच गया और पटेल को सबक सिखाने की ठान ली। इसके बाद टंटया ने पटेल और उसके सारे परिवार को अन्न दाने सहित लूट लिया और उसे भिखारी बना दिया। हर बार कि तरह इस बार भी वहां पुलिस पहुंच गई आखिरकार पुलिस टंटया को नहीं खोज पाई। अब टंटया ने अपने प्रमुख साथियों के साथ गहन विचार विमर्ष किया उसने लोगों से कहा कि हमें अलग-अलग बिखरकर काम में लग जाना चाहिए। टंटया अपने कुछ साथियों के साथ ताप्ती नदी के किनारे से होते हुए महारास्ट की सीमा तक पहुंच गया। इसके बाद टंटया झूठे नाम से महेष्वर के पास विश्राम करने पहुंच गया। एक महीने बाद फिर टंटया ने अपने सभी साथियों को एकत्र करके बागदा नामक गांव को लूट लिया। एक मालगुजार ने फिर धोखा किया और टंटया की सभी जानकारी पुलिस को दे दी। इसके बाद पुलिस पिफर से टंटया को पकड़ने पहुंच गई,लेकिन खुफिया जानकारी लगने से टंटया इस बार भी बच निकला और आक्रोष के कारण मालगुजार से बदला लेने की सोचने लगा। टंटया ने मालगुजार के घर जाकर लूट करने का प्लान बनाया,लेकिन पुलिस ने मालगुजार की सुरक्षा के लिए एक कांस्टेबल को नियुक्त कर रखा था, लेकिन जैसे ही कांस्टेबल ने डाकुओं के दल को देखा तो वह डर गया। टंटया ने लूटपाट की और चल दिया। एक दिन टंटया को जानकारी मिली की कोई नामी अंग्रेज अधिकारी टंटया को पकड़ने के लिए रेलगाड़ी से आ रहा है। इसके बाद टंटया भी टेन के पास पहुंच गया और कुलियों के साथ ही अंग्रेज अधिकारी का सामान लेकर चलने लगा। इसी बीच एक सिपाही से टंटया ने कहा साबह मैं टंटया के बारे में जानकारी दे सकता हूं। सिपाही ने लालचवष उस कुलीनुमा टंटया को अंग्रेज अधिकारी से मिला दिया और अधिकारी को लगा कि ऐसे में तो मैं एक ही दिन में टंटया को पकड़ लूंगा। इससे मेरी सरकार में और भी ख्याति बढ जाएगी अधिकारी ने अस्त्रों के साथ सिपाहियों को साथ लिया और निकल पड़ा जंगल में टंटया को खोजने जंगल में पैदल पैदल चलकर अधिकारी और सिपाही थककर चूर हो गए टंटया उन्हें आड़ी-टेढी पगडंडियों में घुमाता रहा। इसके बाद वह अचानक सबकी ओर मुंह करके खड़ा हो गया और बोला लो पकड़ लो मुझे मैं ही टंटया हूं। सभी चकित रह गए इतनी देर में ही टंटया घने बीहड में लुप्त हो गया।  अंग्रेज अफसर ने सारा जंगल छान मारा पर टंटया नहीं मिला। इसके बाद थककर सभी बैठ गए इसके तुरंत बाद भी टंटया प्रगट हो गया और बोला अरे इतने जल्दी थक गए साहब पकड़ो न मुझे तुरंत ही पुलिस अधिकारी ने उसपर गोली चला दी लेकिन इतने में फिर टंटया कहीं गायब हो गया। पुलिस ने एक एक झाडी छान मारी पर टंटया नहीं मिला पुलिस दल को लगा कि टंटया को बड़ा जादूगर है या उसके पास कोई जादुई ताकत है। वे सभी भयभीत हो गए एक दिन निहाल ने टंटया को जानकारी दी कि उसके बेटे का ब्याह होने वाला है तो टंटया भी विवाह में पहुंच गया, लेकिन वहां पुलिस तैनात थी भीलों में माना जाता है कि बेटे का ब्याह में मंडप पिता ही सजाता है। इसी बात के चक्कर में पुलिस यहां पहुंची थी लेकिन टंटया ने महिला का वेष रखकर मंडप सजा दिया और पुलिस समझ ही नहीं पाई कि यह टंटया है। सभी लोगों को पता था कि यह टंटया है लेकिन पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगने दी। यदि पुलिस अधिकारी भीलों की इस परंपरा का ज्ञान रखते थे। टंटया को पकड़ने में देरी नहीं होती जैसे ही रस्में खत्म हुईं टंटया ने पिफर अंग्रेज पुलिसवालों को सिर का घूंघट हटाते हुए कहा। ऐ अंगरेजों की औलादों हिम्मत है तो आओ पकड़ो मुझे इसके बाद टंटया गांव से गायब हो गया। पुलिस इस बार पिफर खाली हाथ लौट गई 23 मई 1881 के दिन टंटया अपने दल के साथ ताप्ती नदी के दूसरे किनारे से होता हुआ हिजरा नामक गांव में पहुंच गया। इसके बाद टंटया ने धारतलाई गांव में डाका डाला और जंगल-जंगल से होकर होल्कर राज्य के निमाड़ में आकर एक गांव में आराम से रहने लगा। पुलिस ने अपने जासूसों से यह पता कर लिया कि टंटया होल्कर राज्य के किसी गांव में निवास कर रहा है इसी बीच टंटया की चुगली एक नाई ने कर दी। टंटया को यह रास नहीं आया उसने एक दिन नाई को धमकाकर उसे भी  लूट लिया टंटया के कारनामें के चर्चे होल्कर राज्य में ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेष और अंग्रेजों का सीपी प्रान्त व महारास्ट तक सीमित न होकर पूरे भारत देष में थे अंग्रेज साषित निमाड़ के अलावा होल्कर राज्य के गरीब और दलित टंटया से मिले बगैर ही उसे अपना रहनुमा मानते थे। एक दिन भीलखेरी गांव के सुनार ने टंटया के दल का भोजन सत्कार किया इसके बाद उन्हें आराम करने की सलाह देकर उसने पुलिस को सूचना दे दी और सभी डाकु पकड़ लिए गए यषवंत राव होल्कर की विधवा पत्नी केसरबाई उर्फ कस्डाबाई ने 17 फरवरी 1844 को खंडेराव होल्कर की मत्यु के बाद भाउ होल्कर के छोटे पुत्र मल्हार राव होल्कर को गोद लेकर 27 जून 1844 को तुकोजीराव द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठाया। अतः टंटया के दल को तुकोजीराव द्वितीय के दरबार में पेष किया गया। टंटया को गिरफ्तार देखकर तुकोजीराव कापफी प्रसन्न हुए इसके बाद अंग्रेज सरकार के आग्रह को मानकर तुकोजीराव ने जंजीरों में जकड़कर टंटया को खंडवा की ओर भेजा लोगों को पता चला कि टंटया मामा को खंडवा पैदल मार्ग से ले जाया ता रहा है तो लोग सड़क पर आ गए,लेकिन लोग खुसुर फुसुर करने लगे खंडवा आने पर पता चला कि पुलिस जिसे पकड़ लाई है वह टंटया मामा है ही नहीं। वह तो जेल से दो बार फरार हो चुका दौलिया है जैसे ही टंटया को दौलिया की गिरफ्तारी की खबर लगी उसने सुनार के घर सहित पूरे गांव में आग लगवाकर लूट मचाई होल्कर राज्य में टंटया की पहली लूट थी। मालगुजारों सहित सभी अधिकारियों के कागज पत्र भी टंटया ने आग के हवाले कर दिया टंटया ने कहा कि मैं कागज पत्र जलाकर होल्कर महाराज को चुनौती दे रहा हूं इसके बाद टंटया अंजनगांव से निकलकर इजिरल गांव पहुुुंचा वहां भी हर घर को लूटा। इसके बाद जामली गांव में लोगों से पैसा वसूल किया इसके बाद साथी हीरिया के साथ जंगल में चला गया। बोरगांव में थाने का इंस्पेक्टर नाथू खां टंटया के पीछे पड़ गया,लेकिन टंटया के साथियों ने उसे पहले ही खबर कर दी और टंटया वहां से भाग गया नाथू खां को पता चला कि हीरिया का एक अभिन्न दोस्त हैै। जिसका नाम इसलाम है तो नाथू ने इसलाम को बहला फुसलाकर टंटया को घेरने की कोषिष की 16 दिसंबर 1881 को इसलाम ने प्रलोभित होकर नाथू खां को घर बुलाकर हीरिया को मिलने बुलाया जैसे ही हीरिया अपने मित्र इसलाम से मिलने पहुंचा वहां बैठे इंस्पेक्टर नाथू खां ने उसे दबोच लिया दोस्त की दगाबाजी का षिकार हीरिया भी पुलिस की गिरपफत में आ चुका था। हीरिया को कोर्ट ले जाया गया। इसके बाद उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। खंडवा और जबलुपर की अभेद किलेनुमा जेल को नाखूनों का औजार से पफरार होने वाले दौलिया को हीरिया के साथ जबलपुर जेल की सख्त सुरक्षा में रखा गया। अब पुलिस ने सारा ध्यान टंटया की ओर केंद्रित किया अंग्रेज पुलिस व होल्कर पुलिस ने संयुक्त टीम का गठन किया। दोनों सरकारों के वीर, बहादुर, इमानदार, और साहसी जासूस इन्सपेक्टरषेर अली गोकुल राय और नाथू खां के नेत्त्व में टंटया पुलिस नई नई योजनाएं बनाने में लगी रहती थी। परिस्थितयों को भांपकर टंटया भी पहले से ज्यादा सतर्क रहने लगा था वह जब भी जंगल में रहा कभी भी दो रात लगातार एक जगह में सोया नहीं। वह जहां रहता था उससे दो मील दूर निवास करता कहीं और नींद लेता हर बार अपने ठिकाने बदलते रहता था जहां रहता। वहां से अपने हर सबूत मिटाते चलता यही कारण था कि पुलिस को कोई भी सुराग नहीं मिल पा रहा था कि टंटया को पकड़ें तो कैसे पकड़े भीलों, दलितों और ठेठ पिछड़ी जातियों और गरीबों पर उसका अटूट विष्वास था। 1881 को दौलिया और हीरिया को कालापानी भेज दिया गया। इससे टंटया को बहुत दुख हुआ वह बचने के लिए हर तरपफ भागते रहता था टंटया 1882 में सदल बल के खरगा गांव पहुंच गया। वह उस नाई से बदला लेना चाहता था जिसने लालच वष उसकी जानकारी पुलिस को भेजी थी। टंटया ने नाई के बेटे का अपहरण कर लिया। करीब 10 दिन बाद नाई का बेटा भागते हुए आया और पुलिस को जानकारी दी कि वह भागकर आया है इसके बाद पुलिस उसके बताए स्थानों पर दबिष देने पहुंच गई। इसके साथ ही पुलिस जहां भी जाती जिस गांव में पूछताछ करती वहां के लोगों को प्रताड़ित भी करती। गांवों में सिपाहियों की नियुक्ति की गई। इसके बाद पुलिस ने भीलों पर निर्ममता बरसानी प्रारंभ कर दिया। आदिवासियों को पकड़कर जेल में भरा जाने लगा। अब पुलिस ने नई चाल चली भीलों को प्रलोभन देकर एक दल तैयार कराया। उन्हें कहा गया कि आपको सजा नहीं दी जाएगी। अगर आप लोग टंटया का पता बताकर हमें जानकारी दो इसके बदले इनाम देने की भी लालच दी गई इस दल के युवाओं को पता चला कि टंटया तिनसिया गांव में अपने दल के साथ विश्राम कर रहा है तो पुलिस को इसकी जानकारी दी पुलिस भी जैसे तैयार बैठी थी। पुलिस और महाराजा होल्कर ने गांव के मालगुजार से सहायता मांगी और कहा कि आप टंटया को गिरफ्तार कराइए लेकिन मालगुजार ने पुलिस के साथी होने के बाद भी टंटया को सूचना दी कि पुलिस तुम्हें पकड़ने आ रही है। इस प्रकार टंटया भाग गया जब होल्कर महाराजा को ज्ञात हुआ कि मालगुजार ने ही सूचना लीक की है तो उसे सजा के रूप में कहा गया कि आप एक महीने के अंदर में टंटया को नहीं पकड़  पाए तो दंड के लिए तैयार रहना। एक महीने बीत गए पर मालगुजार ने पुलिस को एक सूचना तक न दी इसके बाद होल्कर महाराजा ने मालगुजार की सारी संपत्ति राजसात कर सडक पर ला दी। दौलिया और हीरिया को 16 दिसंबर 1881 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी एक साल बाद 16 दिसंबर 1882 को टंटया ने दोस्तों के लिए बदला लेने के लिए हेमगिरी गांव जाने का संकल्प लिया। इसके लिए टंटया ने चाल चली एक ग्रामीण से पुलिस को समाचार भिजवाया कि टंटया हीरापुर गांव में डाका डालने पहुंचा है इसके बाद जब पुलिस वहां पहुंची तो सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। पुलिस रात में खालीहाथ लौटने लगी तो देखा कि रात में हेमगिरी गांव में अग्निकांड हुआ है। पुलिस वहां पहुंची तो देखा कि डाकु लोगों को लूट रहे हैं और उनके घरों को खिलौनों की भांति आग लगा रहे हैं यह देखकर राजपूतों ने गुस्से से डाकुओं पर हमला बोल दिया। टंटया के सामने होने से डाकुओं का साहस कई गुना बढ गया था। चारों ओर से जैसे युद्ध छिड़  गया हो ऐसा द्ष्य वहां दिखाई दे रहा था। देखते ही देखते राजपूतों का लीडर जब्बर सिंह के सीने में गोली लगी और वह भगवान को प्यारा हो गया। अपने लीडर की मौत से भयभीत राजपूत वहां से जान बचाकर भाग गए। नाथूखां जैसे चतुर अपफसर भी टंटया को गिरफ्तार करने में असपफल हो गया। इससे खींचकर अंग्रेज सरकार ने नाथू और होल्कर पुलिस के कप्तान मंसासिंह को उलटे टंटया के सहयोगी होने के आरोप में 1882 में जेल भेज दिया लेकिन कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। जनवरी 1883 में टंटया ने एकबार पिफर एलिचपुर जिले के गांव मेलघाट जमीदारी में डाका डाला। अब टंटया और भी ज्यादा मजबूत हो गया था। उसने सारे निमाड़ में उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया था। टंटया को पता चला कि निमाड़ जिले के रोहिनी गांव का निवासी एक मालगुजार भीलों के लगातार संपर्क में रहता है और टंटया की जानकारी पुलिस को भेजता है। इसके बाद टंटया ने वह कर दिखाया जो कोई बडा हीरों पिफल्मों कर करके नहीं दिखा सकता। 16 पफरवरी 1883 को उसने घोषणा की कि मैं मालगुजार को लूटने जाउंगा जिसकी हिम्मत हो तो पकड़ के देख लेना। पुलिस ने भी टंटया को गिरफ्तार करने की योजना बना ली। टंटया ने अब पुलिस को ठगने की सोची वह रोहिनी गांव के पास आया और वहां से खबर भेज दी कि टंटया अब मेलाघाट गांव में एक अमीर के घर डाका डालेगा।  इसके बाद पुलिस भी मेलाघाट गांव की ओर रवाना हो गई। इसके बाद आराम से टंटया रोहिनी के मालगुजार के घर पहुंचा और वहां लूटपाट कर घर में आग लगा दी। पुलिस अपने को ठगे जाने से खींजकर रह गई। अब होल्कर सरकार भी लगता है डर गई थी उसने अंग्रेज सरकार का संपूर्ण सहयोग देने की ठान ली। इसके बाद होल्कर सरकार ने अपने सबसे प्रसिद्ध पुलिस अधिकारी मोहम्मद खां को सारे अधिकार देकर नियुक्त कर दिया। मोहम्मद ने गरीबों को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया। लोगों के घरों में तोड़फोड़ मचाने लगा लोगों को बाहर जाने को कहने लगा। हर तरह से भीलों और आदिवासियों को यातनाएं देने लगा इसके बाद भी लोग सब सहते रहे लेकिन मुंह नहीं खोला। किसी ने सही कहा है जहंा पुरुषार्थ होता है वहां पर इंसान अपमान से चिढता है। बात 27 जुलाई 1883 की है टंटया बडपानी गांव में प्रवेष कर गया पुलिस वहां भी पहुंच गई 20 सितंबर 1883 को टंटया ने केलिगांव में भयंकर डाका डाला। पुलिस जैसे जैसे उसके पास आती टंटया दूसरे गांव पहुंच जाता था इस प्रकार आंख मिचौली से प्रसाषन हिल गया। पुलिस त्रस्त सी हो गई इसी बीच छोटे छोटे लुटेरे भी टंटया के दल के होने का नाटक करके लूटपाट करने लगे प्रदेष की व्यवस्था चरमरा सी गई। गलत काम कोई करता लेकिन उसका आरोप टंटया पर मढा जाने लगा। फिर से पुलिस ने अधिकारियों को नियुक्त किया उसका नाम दीनानाथ था यह इंस्पेक्टर बड़ा ही कर्मठ अधिकारी था। सबसे पहले इस अधिकारी ने टंटया के बारे में अध्ययन किया और उसके कारनामों को देखने की कोषिष की 1883 में टंटया को नए दल मिल गए। इनमें भीलों के अलावा बंजारा कोरकू जनजाति के युवा भी टंटया के सहयोगी बन गए। अब जो भी नीति पुलिस बनाती उसे सबसे पहले टंटया को पता चल जाता।
अब टंटया बरार निमाड़ होशंगाबाद जिलों से होता हुआ होल्कर राज्य की सीमा और खानदेश प्रदेश के बीच स्थित जंगल में रहने लगा। पुलिस को टंटया की उपस्थिति की सूचना मिल गई। इससे पहले की पुलिस टंटया को पकडऩे पहुंचती इससे पहले ही खुफिया तंत्र से टंटया को पता चल गया कि पुलिस पकडऩे आ रही है और वह भागकर खरगांव आज का खरगोन पहुंच गया। इस बार होल्कर महाराज ने कप्तान मुहम्मद खां को टंटया पकड़नेे के लिए नियुक्त किया। यह निमाड़ क्षेत्र में रतनसिंह से पहले डिस्ट्रिक सुपरिटेंड के पद पर नियुक्त अधिकारी था। दोनों को मिलकर टंटया को शीघ्र पकड़ लाने का आदेश हुआ, लेकिन हुआ यह कि दोनों अधिकारियों ने अपने निजी विवाद के चलते एक दूसरे को नीचा दिखाना शुरू कर दिया। फलस्वरूप टंटया को मिला ही नहीं। दोनों अधिकारियों की आपसी लड़ाई देखकर टंटया ने उसका खूब फायदा लिया और क्षेत्र में कई डाके डाले, लोगों में खौफ पैदा किया। टंटया को पकडऩे में सबसे बड़ी समस्या यह आ रही थी कि जिसे सरकार ने टंटया को पकड़ने के लिए नियुक्त कि वे सभी अधिकारी दूसरे जिलों से थे। इस तरह 1884 में होल्कर और अंग्रेज सरकार को टंटया के कारण बहुत ज्यादा पैसे खर्च करने पड़े टंटया की सहायता के अपराध में हजारों गरीबों और भीलों को प्रताड़ित किया जाने लगा। निमाड़ जिले में मुलगांव नामक एक गांव था। जहां सरकार ने एक कांस्टेबल को नियुक्त कर रखा था। वह बड़ा साहसी और अपने कार्य में दक्ष होने के कारण लोगों की कृपापात्र भी बना हुआ था। एक दिन टंटया भी मुलगांव में घुस गया और उस कांस्टेबल को गोली लग गई। मुंकुंद नामक एक भील होल्कर राज्य में निवास करता था। टंटया को पहले भी जानकारी मिली थी कि यह युवक टंटया की मुखबिरी करके सारी जानकारी होल्कर राज्य को देता है। इसके बाद टंटया का निशाना वही युवक बना टंटया ने उसे मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार टंटया ने 1885 में होल्कर और अंग्रेजों को चुनौती देकर कई डाके डाले। सन 1886 में टंटया ने होशंगाबाद जिले में 5 और बैतूल जिले के एक तथा सीपी प्रंात के निमाड़ और होल्कर राज्य के निमाड़ में अनेकों स्थान पर डाके डाले। निमाड़ जिले में बारूर नामक एक गांव था यहां पर समृद्धों की बाढ़ सी थी जमीदार जैसे लोग भी ज्यादा थे। इन्होंने सोचा कि टंटया को पकड़ा दिया जाए तो प्रतिष्ठा और अधिक बढ़ जाएगी। टंटया को जब इनके कृत्यों की जानकारी मिली तो मालगुजार के घर में लूटपाट मचा दी और उसे सबके देने के लिए बेटे का अपहरण कर लिया। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद बंजारी नामक गांव में नियुक्त पुलिस कांस्टेबल बापूमंग ने अपनी चतुराई से टंटया के दो साथी भौलिया और औलिया को गिरफ्तार कर लिया। टंटया अपने साथियों के साथ ऐसे व्यवहार को सुनकर फिर कुपित हो गया। इसके बाद टंटया ने गुस्से में उसे कांस्टेबल को मौत न देकर उसकी नाक काट दी। टंटया सोचता था कि ऐसा करने से लोग और डरेंगे ताकि मुखबिरी न कर सकें। अब होल्कर महाराज और अंग्रेजों को लगा कि टंटया को सागर में मोती निकालने जैसा होगा। इसके बाद प्रशासन ने फिर बड़ा बदलाव किया। 1886 में मध्य भारत देश के एजेंट बड़े साहब लेपेट ग्रीफिन ने टंटया को गिरफ्तार करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। इस बड़े प्रोजेक्टर के लिए लेपेट ने सीआईई मेजर ईश्वरी प्रसाद को भी अपना सहयोगी बनाया। लेपेन ग्रीफिन ने नए तरीके से कार्य को शुरू किया उसने जगह-जगह पुलिस के तंबू लगाए गए। एकदिन टंटया और उसके साथी जंगल से जा रहे थे, सामने से एक बारात देखकर टंटया ने बारातियों से निवेदन किया कि हमें दुल्हा-दुल्हन के चेहरे देख लेने दो। बारातियों को लगा कि अब तो सबकुछ लुट गया पता नहीं ये डाकु दुल्हा दुल्हन के साथ क्या करेंगे। इस बीच दुल्हा का पिता आगे आया और अपनी पगड़ी टंटया के पैरों पर रखते हुए बोला टंटया मामा हमारे पार आपको देने के लिए कुछ भी नहीं हैं- इस पर टंटया बोला अरे मामा भी बोलता है और डरता है। टंटया डोली के पास पहुंचा और देखा तो उसमें एक दुल्हा और अत्यंत रूपवान दुल्हन थी। कहते हैं टंटया ने अपने जीवन में कभी भी महिलाओं के साथ कोई गंदी हरकत नहीं की जैसा अन्य डकैत करते हैं। टंटया ने दुल्हन को देखकर कहा देखों कितनी रूपवान कन्या है पर शरीर पर कोई रकम नहीं है। इस पर दुल्हे के पिता ने कहा, दुल्हन के घरवाले गरीब हैं मामा। इसके बाद टंटया ने अपने खजाने से सोने-चांदी के जेवर निकाले और दुल्हा दुल्हन को दिए। बारात को यह अंदाजा नहीं था कि हमें लूटने वाला डाकु खुद लुट रहा है लेकिन वह तो रॉबिनहुड था रॉबिनहुड। इसके बाद टंटया अपने रास्ते चला गया।
प्रेम यदि एकतरफा होता है या पुरुष यदि किसी स्त्री पर आसक्त होता है तो उसे अपने मन की इच्छाओं को नियंत्रित रखकर अपनी शालीनता, अपनी गंभीरता,अपना बड़प्पन और अपनी इच्छाशक्ति द्वारा प्रेमिका के ह्दय के अंकुर को पल्लवित करना चाहिए। जिससे जीवनभर संबंध सहज, स्वाभिक व स्थायी रह सके। धोखे में रखना, भ्रमित करना, बलात प्रेम सौंपना या आरोपित प्रेम कभी जीवन भर सफल नहीं होता। आजकल तो शारीरिक आकांक्षाओं के परिणामस्वरूप जो लालसा जागृत होती है उसे ही प्रेम कह दिया जाता है।
टंटया प्रेम के इसी अनुभूति के धरातल में खड़ा था। उसका यशोदा से प्रेम तो बचपन से ही था, साथ ही एकतरफा भी नहीं था परंतु फिर भी वह शारीरिक सबंधों की संकीर्णता मेंजकड़ा हुआ भी नहीं था। परंतु भारतवर्ष की यह विडंबना ही कही जाएगी कि यदि कोई युवा पुरुष और नारी साथ-साथ घूमते हैं साथ बात करते हैं तो हमारा समाज उन्हें शारीरिक संबंधों पर आधारित संबंध घोषित करके दोनों को बदनाम करने से पीछे नहीं हटता। टंटया को पोखर गांव में निवास करने पर यशोदा से गलत संबंधों का अपराधी समझकर दोनों को बुरी तरह बदनाम किया गया था। यशोदा की दूर-दूर तक बदनामी होने के कारण उसकी शादी नहीं हो पाई थी। ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि पोखर छोडऩे के बाद टंटया कभी यशोदा से मिला हो। यशोदा का भाई जालिमसिंह आलसी अवसरवादी और कायर था। उसके पिता शिवा पाटिल ने उसे हिस्से का धन देकर घर से बेदखल कर दिया था। इसके बाद जालिमसिंह पता नहीं कहां चला गया, शिवापाटिल भी मौत के आगोश में चला गया। अब शिवा की सारी दौलत यशोदा के नाम थी। इसी प्रकार पोखर के जमीदार सरदार उसके बेटे मोहन की भी मौत हो चुकी थी। और सरदार की पत्नी गजिया और मोहन की पत्नी सारसी के अधिपत्य में आ गई। मोहन वही व्यक्ति था जिसने 1878 में टंटया को धोखे से गिरफ्तार कराया था। और वहीं से टंटया बागी हो गया था। अब गजिया बहुत घमंडी हो चुकी थी। अकेली यशोदा को देखकर वह अकसर ताने कसती थी कि देखों टंटया से इसके अवैध संबंध थे। एक बार यशोदा को अपनी जमीदारी के हिस्से में गजिया से कुछ जुआर लेनी थी। इस पर गजिया ने यह देने से मना कर दिया। एक दिन पंचायत बैठाकर यशोदा का अपमान भी कराया और जुर्माने स्वरूप 100 रुपए वसूले गए। टंटया को जब पता चला तो वह आग बबूला हो गया 27 अक्टूबर 1887 को वह अपने कुछ साथियों सहित पोखर गांव पहुंच गया। गजिया ने जब डाकुओं को अपने सामने देखा तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुल हो गई। टंटया ने उससे कहा- मोहन के कपट का कंगन मुझे दे दो। इस पर गजिया ने कहा- आ बेटा बैठ। इस पर टंटया ने कहा- अपने पति और औलाद जैसा कपट न कर बुढिय़ा। इसके बाद टंटया ने उसके पूरे घर को लूट लिया। अब यशोदा से किए बुर व्यवहार का फल भोग बुढिय़ा कहकर टंटया ने गजिया की नाक काट दी। यशोदा के प्रेमपाश में बंधे टंटया ने आज तक किसी महिला से ऐसा कृत्य नहीं किया था, लेकिन प्रेम ही ऐसी चीज है जो सब करा देती है। 28 अक्टूबर 1887 को डिस्ट्रिक सुपरिटेंडेंट साहब ने टंटया के इस अद्भुत डाके को सुनकर भारी पुलिस बल पोखर गांव भेजा। इसी बीच होल्कर राज्य में 17 जून 1886 को होल्कर महाराज तुकोजीराव द्वितीय का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद 3 जुलाई को उनके बेटे शिवाजी राव होल्कर गद्दी पर बैठे। शिवाजी राव होल्कर एक कुशल प्रसाशक थे। होल्कर रियासत पश्चिम में पश्चिम निमाड़ से लेकर उत्तर पश्चिम में रामपुरा, भानपुरा, गरोठ तक फैली थी। सिंधिया राज्य की ग्वालियर, देवास, धार, रतलाम, जावरा और राजस्थान की सीमाएं होल्कर राज्य से मिली हुई थीं। 1888 के शुरू से ही टंटया पुलिस और मालवा भील करपस भूपाल पलटन ने एकसाथ टंटया को पकडऩे का निश्चय किया। 17 मार्च 1888 को टंटया ने विसतार नाम गांव में एक भयानक डाका डाला। लूट के बाद टंटया बैतूल के जंगल में चला गया। कुछ दिनों बाद बैतूल से निकलकर 27 अक्टूबर 1888 को होल्कर राज्य के एक गांव में डाका डाला। इस बीच अंग्रेज सरकार को सनसनीखेज जानकारी हाथ लगी कि कुछ प्रसाशनिक अधिकारी और पुलिसकर्मी टंटया की सहायता कर रहे हैं जानकारी लीक कर रहे हैं। कर्मचारियों के दुराचरण की जानकारी महाराजा होल्कर को दी गई। अब टंटया बहुत चिढ़चिढ़ा और कमजोर हो गया था। उसका बल छय हो गया था, उम्र का प्रभाव भी पड़ रहा था। साथियों के न रहने पर यह होना सही भी था। टंटया ने अपने 11 साल के बागी जीवन के दौरान 400 से ज्यादा डाके डाले। हजारों परिवारों की दुआएं कमाईं। दुर्जनों की बुरी हया भी उसे मिली। अब टंटया के साथ बिजनिया, दौलिया, मेदिया और हीरिया जैसे जांबाज, बहादुर, साहसी और बुद्धिमान साथी भी नहीं थे। हजारों भील दोस्त और नागरिक जेल में नारकीय जीवन जी रहे थे। पुलिस की बढ़ती कार्रवाई के कारण कई बार उसे दो से तीन दिन तक भूखा रहना पड़ रहा था। इस प्रकार की अवस्था में कोई व्यक्ति कितने दिनों तक स्थिर रह सकता है। उसकी उम्र 48 हो गई थी। वह सोच रहा था कि आत्मसमर्पण कर दे ताकि उसे फांसी न हो पाए। आत्मसमर्पण करने के लिए उसने प्रयास भी शुरू कर दिए थे। मई़ 1889 में बनेर नाम गांव में गणपत राजपूत नामक एक आदमी टंटया के करीब आया। गणपत की कई अधिकारियों से अच्छी बनती थी। गणपत ने कहा, कि एक उच्चाधिकारी से मैं तुम्हारी मुलाकात करा दूंगा। इससे टंटया ने गणपत पर आसानी से भरोसा कर लिया। जीवन में किस मोड़ पर कौन कैसा मिल जाए, उससे लाभ होगी या हानि। मन में गहराई से क्या छिपा रखा है यह आज तक कोई भी नहीं जान पाया। शायद इसलिए संसार में मानव एक ऐसा प्राणी जिसके हाथों जीवन की संपूर्ण बागडोर नहीं है। गणपत ने टंटया को अधिकारी इश्वरी प्रसाद से मुलाकात कराने को कह दिया और उसमें विश्वास भर दिया कि मैं ही सबसे विश्वासपात्र हूं। रक्षाबंधन का पावन पर्व पास आ गया था। रक्षाबंधन के एक दिन पहले गणपत टंटया से मिला और कहा- मामा मेजर से मिलने का समय पास आ रहा है मामा। चलो तुम मेरी घरवाली से राखी बंधवा लो, मुझे अपना रिश्तेदार मान लो। 11 अगस्त 1889 को सावन महीने का अंतिम दिन यानी पूर्णिमा था। टंटया लगभग 11 बजे अपने कुछ ही अनुचरों के साथ गणपत यानी अपने बहनोई के घर पहुंच गया। इसके बाद गणपत ने अपनी पत्नी से कहा कि तुम्हारे भाई टंटया आ गए हैं चल राखी बांधने की तैयारी शुरू कर। फिर गणपत ने कहा अरे मामा आज रक्षा बंधन का दिन है ये बंदूक दूर कर दो। टंटया के विरोध के बाद भी गणपत ने उससे बंदूक छीन ली और घर के अंदर ले जाकर रख दिया। रक्षाबंधन का विश्वास सूत्र इतना प्रबल होता है कि सालों से अपने बदन में लगी बंदूक विदा करने से नहीं रोक पाया। इसी बीच नाश्ता पानी लगाया गया। वे सभी उसे ग्रहण कर ही रहे थे कि घर के अंदर से अचानक 30-32 लोग निकल आए और टंटया साथियों सहित पकड़ा गया। ये इश्वरी प्रसाद के पुलिसवाले थे जो सादी वर्दी में गांवों में घूम रहे थे और गणपत के घर के अंदर छिपे हुए थे। लोहे की जंजीरों से टंटया को जकड़ लिया गया। इसके बाद भी पुलिस संतुष्ट नहीं हुई उसने आसपास कई हष्टपुष्ठ कर्मियों को लगा दिया। टंटया यह भूल गया था कि समय प्रतिकूल होने पर बलवान गजराज भी एक तुच्छ चीटी के आगे मारा जाता है। रक्षाबंधन के पावन पर्व पर बहन के नाम पर भाई की गिरफ्तारी, कैद तथा जंजीर व जेल का उपहार बहुत कम लोगों को नसीब होता है। इतिहास गवाह है कि गणपत की योजना में उसकी पत्नी की तनिक भी भागीदारी नहीं थी, लेकिन ये बात टंटया को कौन बताना, रक्षा सूत्र कलंकित हो गया। आनन फानन में पुलिस ने उसे खंडवा जेल ले आया। वह 1878 में भी खंडवा की जेल में कैद हुआ था। जेल में रखे सूत्रों के आधार पर कोई भी यह सिद्ध नहीं कर पाया कि गिरफ्तार आदमी टंटया है, क्योंकि जब उसकी ऊंचाई नापी गई तो वह 3 इंच अधिक ऊंचा हो गया था। इसी बीच टंटया के शिकार हजारों लोगों से उसकी पहचान कराई गई। सबने उसे पहचाना कि यही टंटया मामा है। इसके बाद टंटया को जबलपुर जेल ले जाया गया। टंटया को जिस भी मार्ग से ले जाया जाता वहां के लोगों की आंखों में आंसू होते। इसके बाद टंटया को इंदौर की मल्हारगंज थाने में भी रखा गया। इंदौर की सीआईए जेल रजिस्टर नंबर दो में टंटया की आमद और जबलपुर की रवानगी तथा टंटया की हथकड़ी व बेडिय़ों का विवरण दर्ज था। शिवाजी राव होल्कर ने टंटया को कम सजा देने की बात कही थी, लेकिन तब तक अंग्रेजों से उनके संबंध बेहतर नहीं थे। 26 नवंबर 1889 का दिन जबलपुर के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण दिन था। क्योंकि यहां की कोर्ट में हजारों लोग जुटे थे। अंग्रेज सरकार ने टंटया के अपराधों को खूब बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत किया। टंटया मामा को फांसी की सजा सुनाई गई। नागपुर और जबलपुर के कानूनविदों ने टंटया की फांसी रद्द करने दावे प्रस्तुत किए, लेकिन अंग्रेजों ने एक न सुनी। राजपूताना गजट व दिल्ली के समाचार पत्रों ने लिखा, टंटया को फांसी या कालापनी की सजा के बदले उसे उसके योग्य काम देकर उसकी क्षमताओं, बुद्धि और साहर का सरकार सदुपयोग करे। देश में जिस तरह से डाकुओं को पुलिस नहीं पकड़ पा रही है तो टंटया उस समस्या का सबसे बड़ा हल निकाल सकता है। कांटे से कांटे निकालने के लिए टंटया का उपयोग किया जा सकता है। पर अंग्रेज सरकार के कानों में जू तक नहीं रेंगी। कोई कहता है टंटया को जबलपुर जेल में फांसी दी गई, कोई कहता कि पुलिस ने उसे जंगल में ले जाकर गोलियों से भून दिया, क्योंकि आजतक किसी को टंटया की मृत देह नहीं सौंपी गई। लेकिन सबसे प्रबल तर्क यह है कि इंदौर के निकट खंडवा रेलमार्ग पर टंटया को ले जाकर गोलियों से भून दिया गया। वहीं पर बनी एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंटया मामा की समाधि भी कहा जाता है। इस मार्ग पर आज भी रेलगाडिय़ा ं कुछ पल के लिए रुककर टंटया मामा को सलामी देती हैं। यह सत्य है या नहीं आजतक पता नहीं चला, लेकिन यह धारणा ज्यादा प्रचलित है कि यह उक्त स्थल पर रेल का चालक रेल की गति कम करके टंटया मामा को सलामी नहीं देता तो ट्रेन कुछ आगे चलकर अपने आप रुक जाती है। यह बात टंटया मामा की शक्ति स्वीकारने के लिए बाध्य कर देती है।


टंटया भील सुनने मंे एक आम नाम लगता है जो आदिवासी लोग रखते हैं। भील का नाम तो हर कोई समझता ही है आखिर मध्य प्रदेष की सबसे बड़ी जनजाति जो है। कुछ बुद्धिजीवी इन नाम को सुनते ही बागी की तस्वीर देखने लगते हैं। एक ऐसे बागी जिसके लिए मातृभूमि और उससे निवासी सबसे पहले थे। ये लोग ही उसकी लिए सबसे प्रिय थे। मालवा-निमाड़ में तो टंटया का नाम सुनते ही उनके सम्मान में शीश झुक जाते हैं। टंटया भील को टंटया मामा के नाम से भी जाना जाता है। टंटया का शब्दार्थ समझें तो इसका अर्थ है झगड़ा इसका एक और अर्थ भी होता है जो आपको आगे पता चलेगा। टंटया तब पैदा हुआ था जब हमारे देष में अंग्रेजों की हुकूमत थी। इतिहासकारों का कहना है कि टंटया के पिता मऊसिंग ने बचपन में नवगजा पीर के दहलीज पर अपनी पत्नी की कसम लेकर कहा था कि उनका बेटा अपनी भील जाति की बहन, बेटियों, बहुओं के अपमान का बदला अवश्य लेगा। नवगजा पीर मुसलमानों के साथ-साथ भीलों के भी इष्ट देवता थे।
जन्म
टंटया भील का जन्म तत्कालीन सीपी प्रांत के पूर्व निमाड़ यानी वर्तमान के खण्डवा जिले की पंधाना तहसील के बड़दा गांव में सन 1842 में हुआ था। वह फिरंगियों को सबक सिखाना चाहते थे। टंटया के पिता एक ऐसे किसान थे जिनके पिता जमीदारों को लगान देकर खेती-बाड़ी करते थे। पिता का नाम भाउसिंह भील था। बताया जाता है कि बचपन में ही गरीबी देखने वाले टंटया की मां चल बसीं। भाउसिंह की पत्नी की मौत के बाद परिवार ने कहा कि वे दूसरी शादी कर लें, लेकिन लेकिन उन्हें हमेशा टंटया के लालन-पालन की ही चिंता सताती रहती थी, उन्होंने शादी से मना कर दिया, जबकि उस समय भीलों में एक से ज्यादा शादी करने की परंपरा भी बलवती थी। उन्हें हमेशा डर सताता था कि सौतन मां से टंटया का बचपन प्रभावित हो सकता है। इसके बाद आखिरकार भाउसिंह ने शादी न करने का फैसला किया और खेती बाड़ी कार्य के साथ टंटया का लालन-पालन किया।
माता के बिना पला टंटया बिल्कुल दुबले-पतले और ऊंचे षरीर का था। इसके साथ ही संघर्षपूर्ण बचपन होने के कारण वह शक्तिशाली हो गया था। कहते हैं जो संघर्ष पूर्ण जीवन जीता है वह कठोर हो ही जाता  है, उनके पिता ने उन्हें पौष्टिक भोजन खिलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, इसलिए टंटया दुबले किंतु शक्तिशाली थे।

टंटया नाम का कारण
इतिहास गवाह है कि आदिवासी इलाकों में कई सालों से जुआर की खेती की जाती है और मध्य प्रदेष का खंडवा इलाके के भील भी जुआर की खेती बहुत अधिक मात्रा में करते थे। हांलाकि वर्तमान समय में अब यह कृषि से लगभग बाहर हो गई है। जुआर का पौधा जब सूखता है तो पतला हो जाता है। इस पौधे को तंटा कहा जाता है। चूंकि टंटया भील भील भी एकदम दुबले पतले थे, इस कारण उनका नाम टंटया पड़ गया।
डकैत की छवि में रॉबिनहुड
टंटया वास्तव में डाका डालने वाला डकैत नहीं था वरन एक बागी था जिसने संकल्प लिया था कि विदेशी सत्ता के पांव उखाड़ना है। वह युवाओं के लिए एक जननायक का काम कर रहा था। कई पुस्तकों में इसका जिक्र है कि तात्या टोपे ने टंटया भील को शिक्षा दी थी कि हमशक्ल रखना कितना फायदेमंद होता है। यही कारण था कि एकमात्र टंटया ने अंग्रेजों और पूरे होल्कर राज्य की नींद उड़ाकर रख दी थी और वे निसहाय जैसे हो गए थे इतिहास गवाह है कि हमशक्ल रखने से कितनी तत्परता से अपने मकसद में कामयाब हुआ जा सकता है। टंटया भी अपने दल में हमशक्ल रखता था। पुलिस को परेशान करने के लिए टंटया एक साथ पांच-छह विपरीत दिशाओं में डाके डलवाता था। उस समय भील विद्रोहियों में जो टंटया के साथ थे उनमें से महादेव शैली, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे।
इतना मजबूत नेटवर्क
टंटया मामा के पास बड़ी-बड़ी टोलियां थीं। वर्तमान राजस्थान के बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, मध्य प्रदेष के बैतूल, धार में टंटया को भीलों का प्रमुख दर्जा था। लूटमार करके वह होलकर रियासत राज्य में जाकर सुरक्षित हो जाता था। अपनी वीरता और अदम्य साहस की बदौलत तात्या टोपे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने टंटया को गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। इसी वजह से वह पकड़ा नहीं जा सका। हालाकि तात्या टोपे द्वारा टंटया की षिक्षा की अधिक जानकारी नहीं मिलती। पुलिस खोजती रहती पर उसे गिरफ्तार करने में असमर्थ रहती। लोग टंटया को डाकू कहते थे पर क्रांतिकारी बनकर जो कुछ भी वह लूटता उसे वह अंग्रेजों के विरुद्ध ही उपयोग में लाता था। गरीबों में बांट देता था, कुछ अंग्रेज तो दबी जुबान से उसे इंडियन रॉबिनहुड तक कह देते थे। वह निमाड़ का पहला विद्रोही भील युवक था। टंटया बड़ा ही बलशाली युवक था। उसमें चमत्कारिक बुद्धि शक्ति थी। उसे अवतारी व्यक्ति तक कहा जाने लगा। वह किसी स्त्री की लाज लुटते नहीं देख सकता था। टंटया के बारे में कहते हैं-
तांत्या बायो, टण्टया खड माटवो।
घाटया खड धान, भूख्या खडं बाटयो॥
अदम्य साहसी
एक बार की बात है जब टंटया भील को पुलिस द्वारा पकड़ा गया तो वह थानेदार का हाथ छुड़ाकर बाढ़ में नर्मदा में कूद गया। पीछे लगे थानेदार से कहा कि मार गोली मैं टंटया हूं। मुझे पकड़ो मैं भागूंगा नहीं। टंटया ने गिरफ्तारी दी। बाद में कुछ और लोगों को पकड़ा गया। तीन महीने जेल में रहकर वह सोच रहा था कि वह चाहता तो नर्मदा से निकलकर भाग जाता। वह क्यों पुलिस के हाथ पड़ता। सहयोगी पोपली, जसुधि ने समाचार भेजा कि जेल तोड़कर भाग निकलो। संग्राम नाम का एक व्यक्ति जेल में डयूटी पर तैनात था। वह टंटया का हितैषी था। उसे वह सही सूचनाएं मुहैया कराता था। जेल से उसे खंडवा ले जाया जा रहा था। वहां वह एक सिपाही की बंदूक लेकर कूद पड़ा और फिर फायर होने पर भी बच गया। एक बार जंगल में घुस जाने पर उसे कोई पकड़ नहीं सकता था।
मुखबिर कर देते थे दगाबाजी
कई बार टंटया इसलिए जेल पहुंच जाता क्योंकि मुखबिर दगा दे जाते, बाद में पुलिस ने जालसाजी से उसे घेर लेती थी। मुखबिरी और दगाबाजी के कारण की टंटया की मौत हो गई थी। टंटया की शहादत 4 दिसम्बर 1889 को हुई। निमाड़ अंचल की गीत-गाथाओं में आज भी टंटया मामा को याद किया जाता है। कई स्कूलों में बच्चों को टंटया मामा के षौर्य की गाथा सुनाई जाती हैं।
आजादी का दीवाना
यह निविर्वाद सत्य है कि हर आजादी के हर दीवाने को तात्कालिक सरकार बागी करार दे देती थी जो भी अपने देष बचाने के लिए अंग्रेजों से निपटता उसे अंग्रेज दुष्मन समझकर बागी निरूपित कर देत थे। चाहे औरंगजेब की मुगल सत्ता हो या फिरंगियों की गोरी सत्ता। क्रांतिकारी टंटया भील ने भी राजशाही और अंग्रेज सत्ता से करीब बारह वर्ष तक सशस्त्र संघर्ष किया तथा जनता के हृदय में जननायक की भांति स्थान बनाया। स्वाधीनता संग्राम में राजनैतिक दलों और शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त के लिए सशक्त आंदोलन किए, लेकिन इसके पहले टंटया भील जैसे आदिवासी क्रांतिकारियों और जनजातियों ने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम लोगों की आवाज बुलंद कर देश को गुलामी से मुक्त कराने का शंखनाद किया था। टंटया भील के रूप में आदिवासियों और आमजनों की आवाज मुखरित हुई थी।
टादिवासियों के हीरो
एक सौ बीस वर्ष पूर्व देश के इतिहास क्षितिज पर 12 वर्षों तक सतत् जगमगाते रहे क्रांतिकारी टंटया भील जनजाति के गौरव है। वह भील समुदाय के अदम्य साहस, चमत्कारी स्फूर्ति और संगठन शक्ति के प्रतीक हैं। वह अदम्य साहस के स्वस्फूर्त स्वाभाविक उदाहरण बन गए इसीलिए अंग्रेज सरकार उन्हें इंडियन राॉबिनहुड कहती थी।
अमेरिकी अखबार में छपे
द न्यूयार्क टाइम्स के 10 नवम्बर 1889 के अंक में टंटया भील की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इसमें टंटया भील को इंडिया का राॉबिनहुड बताया गया। टंटया भील अंग्रेजों का सरकारी खजाना और अंग्रेजों के चाटूकारों का धन लूटकर जरूरतमंदों और गरीबों में बांट देते थे। वह गरीबों के मसीहा थे। वह अचानक ऐसे समय लोगों की सहायता के लिए पहुंच जाते थे, जब किसी को आर्थिक सहायता की जरूरत होती थी। वह गरीब-अमीर का भेद हटाना चाहते थे। वह छोटे-बड़े सबके मामा थे। उनके लिए मामा संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रत्येक भील आज भी अपने आपको मामा कहलाने में गौरव का अनुभव करता है। भीलों के समाजवादी सपने को साकार करना चाहते थे। उन्हें देश की गुलामी का भी भान था।
छापामार युद्ध में निपुण
टंटया बार-बार जेल के सींखचों को तोड़कर भाग जाते थे। छापामार युद्ध में वह निपुण थे। उनका निशाना अचूक था। भीलों की पारंपरिक धनुर्विधा में उनके जैसे षायद ही उस वक्त कोई रहा होे। तीर कमान, लाठिया, फालिया उनका मुख्य हथियार थे, हांलाकि बदलते समय के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए टंटया भरमार बंदूक का उपयोग करने लगे थे। उन्होंने बंदूक चलाना भी सीख लिया था। युवावस्था से लेकर अंत समय तक टंटया का सारा जीवन जंगल, घाटी, बीहड़ों और पर्वतों में अंग्रेजों और होलकर राज्य की सेना से लोहा लेते बीता। टंटया ने अंग्रेज साम्राज्य और होल्कर राज्य की शक्तिशाली पुलिस को बरसों छकाया और उनकी पकड़ में नहीं आए।
जीजा ही बना विष्वासघाती
टंटया की सहायता करने के अपराध मे हजारों व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा सैकड़ों को जेल भेजा गया, लेकिन एक पर रक्षाबंधन के अवसर पर मुंहबोली बहन के घर जीजा के विश्वासघात के कारण उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। टंटया को ब्रिटिश रेसीडेन्सी क्षेत्र में स्थित सेन्ट्रल इन्डिया एजेन्सी जेल (सीआईए) इन्दौर में रखने के बाद पुलिस के कड़े सशस्त्र पहरे में जबलपुर ले जाया गया। टंटया को बड़ी-बड़ी भारी बेड़ियां डालकर और जंजीरों से जकड़कर जबलपुर की जेल में बंद रखा गया जहां अंग्रेजी हुक्मरानों ने उन्हें भीषण नारकीय यातनाएं दीं और उन पर भारी अत्याचार भी किए। टंटया को 19 अक्टूबर 1889 को सेशन न्यायालय जबलपुर ने फांसी की सजा सुनाई। जनविद्रोह के डर से टंटया को कब और किस तारीख को फांसी दी गई यह आज भी पूर्णरूप से ज्ञात नहीं है।
पटरियों के पास समाधि
आम मान्यता है कि फांसी के बाद टंटया के शव को इंदौर के निकट खण्डवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेल्वे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया था। वहां पर बनी हुई एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंटया मामा की समाधि माना जाता है। टंटया मामा द्वारा किए गए कार्यों को निमाड़, मालवा, धार-झाबुआ, बैतूल, होशंगाबाद, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में लोगों ने अपनी लोक चेतना में उसी तरह शामिल कर लिया। जिस तरह लोक देवता पूजित होते हैं। टंटया मामा की सबसे अधिक गाथाएं निमाड़ अंचल में रची गईं। मालवी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में भी टंटया भील का चरित्र गाया जाता है। मध्यप्रदेश सरकार ने जनजाति प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एक लाख रुपए का जननायक टंटया भील सम्मान स्थापित किया है। यह सम्मान शिक्षा तथा खेल गतिविधियों में उपलब्धि हासिल करने वाले प्रदेश के एक आदिवासी युवा को प्रतिवर्ष प्रदान किया जाएगा।
मध्य प्रदेश सरकार का सराहनीय प्रयास
गणतंत्र दिवस परेड 2009 में मध्यप्रदेश की झाकी इंडियन राॉबिनहुड जननायक टंटया भील ने राजपथ की शोभा बढ़ाई। जनसंपर्क विभाग मप्र के लिये इस झाँकी का निर्माण मेसर्स आरएस भटनागर एण्ड संस नई दिल्ली के द्वारा किया गया था।
स्कूली बच्चे पढ़ेंगे वीर का पाठ
मध्य प्रदेश सरकार ने विगत दिनों निर्णय लिया है कि स्कूली बच्चों को गीतासार के साथ शहीदों की गाथाएं भी पढ़ाई जाएंगी। स्कूली पाठ्यक्रम में खेती बाड़ी का पाठ शामिल करने के अलावा टंटया भील, नायक शंकर शाह, रघुनाथ शाह जैसे शहीदों की गौरव गाथाएं पढ़ाई जाएंगी। जिससे बच्चों में अपना मध्य प्रदेश का भाव मजबूत हो। स्कूली शिक्षा विभाग की समीक्षा करते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उक्त निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री का कहना है कि  टंटया जैसे वीर हमेशा ही युवाओं के लिए एक जननायक का काम करेंगे।
इन वीरों से थी दोस्ती
भील विद्रोहियों में जो टंटया के साथ थे उनमें से महादेव शैली, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे। इनके पास बड़ी-बड़ी टोलियां थीं।
प्लासी युद्ध के बाद से विद्रोह
आदिवासियों के इन विद्रोहों की शुरुआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही शुरू हो गई थी और यह संघर्ष बीसवीं सदी की शुरुआत तक चलता रहा। आदिवासियों के इलाके में बाहरी मैदानी क्षेत्रों के लोग यानि साहूकार, व्यापारी और ठेकेदार घुसते रहे। इन्हें दिकू कहा जाता था और ये संथालों के शोषक थे तथा उनकी घृणा के पात्र थे। ब्रिटिश शासन इनके संरक्षक के रूप में काम करता था। इसके अलावा आदिवासियों में प्रचलित सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा को मान्यता न देकर ब्रिटिश कानून व्यवस्था में निजी स्वामित्व को ही मान्यता दी गई थी जिससे आदिवासी समाज में तनाव की स्थिति पैदा होते देर न लगी। ईसाई मिशनरियों को भी आदिवासियों ने अपना विरोधी समझा। क्योंकि, वे आदिवासियों के धार्मिक विश्वास पर चोट पहुंचा रहे थे।
यहंा से बागी बन जाते थे आदिवासी
अंग्रेज सरकार के वन कानूनों ने भी आदिवासियों को अंग्रेजी शासन का विरोधी बना दिया। यह स्थिति देश के सभी आदिवासी इलाकों में एक सी थी। फल यह हुआ कि शुरू से ही छिटपुट हिंसक विद्रोहों के रूप में आदिवासियों की नाराजगी प्रकट होने लगी।
आदिवासियों का यादगार संघर्ष
पूर्वी भारत के आदिवासी समुदायों ने लंबा संघर्ष किया। मोआमारिया विद्रोह 1769 में शुरू होकर तीस साल तक चलता रहा। इसी प्रकार चकमा लोगों ने भी उसी दौरान विद्रोह किया। हो, खसिया, सिंगफो और अका जनजाति के लोगों ने उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक में ब्रिटिश शासकों की नाक में दम कर दिया।
...और उमड़ पड़ा विद्रोह
जब मध्य प्रदेष मेें टंटया एक हीरो के तौर पर उभरे थे तभी से भारत के अन्य इलाकों के आदिवासी भी एकलय हो चुके थे। सभी का उद्देश्य एक था, वे अंग्रेेज मुक्त भारत चाहते थे। असम के वनांचल के गारों, अबोरों और लुशाइयों ने भी उन्नीसवीं सदी के मध्य में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। असम में कछार इलाके में 1882 में नागाओं ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया। उड़ीसा में गंजम के आदिवासियों ने और कटक के पाइकों ने विद्रोह किया। 1885 में पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और कटक के संथालों ने जबरदस्त विद्रोह किया। उसके बाद खेरवाड़ अथवा सफाहार आन्दोलन उठा जो अंग्रेजों के राजस्व बन्दोबस्त कानून के खिलाफ था। उधर पूर्वी समुद्र तट में स्थित विशाखापट्टनम में कोरा मल्लया नाम के व्यक्ति के नेतृत्व में लोग उठ खड़े हुए। गोदावरी की पहाड़ियों में 1879-80 में रम्पा विद्रोह हुआ, जिसका केंद्र था चोडावरम का रम्पा क्षेत्र। यहां के पहाड़ी मुखियों याने मुट्टादारों ने अपने स्वामी मनसबदार के खिलाफ विद्रोह कर दिया और बाद में यह अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में बदल गया। क्योंकि, अंग्रेजी शासन मनसबदार को सहायता दे रहा था। दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में और महाराष्ट्र के वनांचल में भी आदिवासियों ने ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध संगठित विद्रोह किए। रांची के दक्षिणी इलाके में 1899-1900 में हुए बिरसा मुण्डा के प्रसिद्ध विद्रोह को कौन नहीं जानता। बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा आदिवासियों ने जो विद्रोह किया वह भारत के आदिवासी विद्रोह में सबसे प्रखर माना जाता है। मैदानों से आए व्यापारियों, साहूकारों और ठेकेदारों ने मुण्डा समुदाय में प्रचलित सामूहिक भू-स्वामित्व की पारंपरिक व्यवस्था को जिसे खूंटकट्टी भू-व्यवस्था कहा जाता था। उसे ध्वस्त कर दिया था। इन बाहरी लोगों की बेगारी से मुक्त होने के लिये मुण्डा लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन काम नहीं बना, उल्टे ब्रिटिश शासन ने शोषकों का ही पक्ष लिया। तब मुण्डा लोगों ने विद्रोह की शरण ली।
1842 से मध्य प्रदेश में आग
मध्यप्रदेश में भी गोंड और भील आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शस्त्र उठाए। 1842 के बुन्देला विद्रोह के समय उन्होनें लोधियों और बुन्देला ठाकुरों का सहयोग किया।
इनकी गाथाएं सुनता था टंटया
जब 1857 का विद्रोह हुआ तब नर्मदांचल में शंकरशाह गोंड और उसके बेटे रघुनाथ शाह को उनकी विद्रोहात्मक गतिविधियों के कारण अंग्रेजों ने 1857 में जबलपुर में तोप से उड़ा दिया गया। इसके बावजूद उस इलाके में गोंडों की हिम्मत नहीं टूटी और जबलपुर जिले के मदनपुर के मालगुजार ढिल्लनशाह गोंड, भुटगांव के महिपाल सिंह गोंड, मानगढ़ के राजा गंगाधार गोंड, और नन्नी कोंडा के देवीसिंह गोंड ने विद्रोह किया। सागर के कुनोर गांव के भगवानसिंह गोंड ने भी ऐसा ही किया। उधर, पश्चिमी मप्र हिस्से में बड़वानी के इलाके में खाज्या नायक, भीमा नायक, सीताराम कंवर और रघुनाथ मण्डलोई ने भी भीलों को बड़ी तादाद में एकत्र करके ब्रिटिश अधिकारियों की नाक में दम किया।
अपने हक मारे जाने से आक्रोष
जनजातीय विद्रोहों की यह सूची सिर्फ एक बानगी है। असल में पूरे भारत में अंग्रेजी शासन की रीति-नीति के कारण आदिवासियों ने विद्रोह किया। अपने सीमित साधनों से वे लंबे समय तक संघर्ष कर पाए। क्योंकि, वनांचल में गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का उन्होंने उपयोग किया। सामाजिक रूप से उनमें आपस में एकता थी और अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाने की उन्हें चिंता भी थी। इन बातों ने उनमें एकजुटता पैदा की और वे शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए।
साधनों की कमी बनी समस्या
टंटया भील का आंदोलन एकलयबद्धता लिए हुए था। वे हर दम अंग्रेजों की नाक में दम करके रखते थे, लेकिन संगठन और साधनों की कमी के कारण हालांकि ये विद्रोह कामयाब नहीं हो पाते थे। इनका सुदूरगामी प्रभाव पड़ा और ब्रिटिश शासन को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि आदिवासियों के हितों और उनकी पारंपरिक संस्कृति की उपेक्षा करना महंगा पड़ सकता है। विदेशी ताकत के खिलाफ होने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम में इन आदिवासियों की भूमिका को रेखांकित किया जाना जरूरी है जिससे आने वाली पीढ़ी उनके उत्सर्ग से प्रेरणा ले सके।
 टादिवासियों पर बहुत कम लेख
भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आदिवासी लोगों के विद्रोह पर अभी तक बहुत कम लिखा गया है। इस महत्वपूर्ण कमी के कारण भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक शून्यता जैसी दिखती है। इस शून्यता को भरने के लिए हमें भारत भर में व्यापक रूप से फैले उन जनजातीय समुदायों के इतिहास को नजदीक से देखना होगा जिन्होंने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। आज हम ऐसे ही एक आदिवासी वीर की बात कर रहे हैं, जिसने पूरी जिंदगी दूसरों के नाम कर दी, लेकिन अपनों से उसे धोखा मिला और देश का लाल आजादी का सूरज न देख पाया। भले ही वह औरंगजेब की मुगल सत्ता हो या फिरंगियों की ब्रितानिया हुकुमत। सभी के सभी अपने नियमों को न  मानने वालों पर क्रूर अत्याचार करते थे, क्रांतिकारी टंट्या भील ने भी राजशाही और अंग्रेज सत्ता से बारह वर्ष तक सशस्त्र संघर्ष किया तथा जनता के ह्वदय में जननायक की भांति स्थान बनाया। स्वाधीनता संग्राम में राजनैतिक दलों और शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त के लिए सशक्त आंदोलन किए, लेकिन इसके पहले टंट्या भील जैसे आदिवासी क्रांतिकारियों और जनजातियों ने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम लोगों की आवाज बुलंद कर देश को गुलामी से मुक्त कराने का शंखनाद किया था। टंट्या भील के रूप में आदिवासियों और आमजनों की आवाज मुखरित हुई थी। करीब एक सौ बीस वर्ष पूर्व देश के इतिहास क्षितिज पर 12 वर्षों तक सतत् जगमगाते रहे क्रांतिकारी टंट्या भील जनजाति के गौरव हैं। वह भील समुदाय के अदम्य साहस, चमत्कारी स्फूर्ति और संगठन शक्ति के प्रतीक हैं। वह अपने अदम्य साहस के बल पर आज एक उदाहरण बन गए।

यहां गाया जाता है चरित्र
टंटया मामा की सबसे अधिक गाथाएं निमाड़ अंचल में रची गईं। मालवी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में भी टंट्या भील का चरित्र गाया जाता है। टंट्या भील आज भले ही हमारे बीच न हों पर उनकी बातें आज भी होती हैं उनके किस्से आज भी लोगों को रोमांचित करते हैं। भील आदिवासियों का इतिहास केवल टंट्या भील तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने अपनी जमीन और संस्कृति के खातिर केवल अंग्रेजों से ही टक्कर नहीं ली बल्कि वे राजशाही के दौर में भी अपने राजा की ओर से आक्रमणकारियों से लोहा लेते रहे थे। भीलों की प्रवृत्ति ही आक्रामक और शिकारी होती थी, कोई उनकी जमीन की ओर आंख उठाकर देख यह उन्हें तब भी मंजूर नहीं था और अब भी नहीं है।
आदिवासियों ने ही षुरू किया विद्रोह
टंट्या एक उदाहरण हैं कि आदिवासियों ने भी हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ी थी, लेकिन जब हमें आजादी मिली तो हमने भी उनसे उनका घर यानि जंगल छीनना शुरू कर दिया जिसे बचाने की खातिर वे अंग्रेजों से लड़े थे। इतना ही नहीं हमने उन्हें विकास का भागीदार भी नहीं बनाया, न तो उनके बच्चों को सही दवा मिली न शिक्षा और न ही भोजन, फिर ऐसी आजादी उनके किस काम की।
सरकार की योजनाएं
टंटया भील स्वरोजगार योजनाः मध्यप्रदेश सरकार ने आदिवासी युवाओं के लिए शंटया भील्य स्वरोजगार योजना को मंजूरी दी हैै। इसमें बैंकों के जरिए आदिवासी हितग्राहियों को पचास हजार से पच्चीस लाख रुपए तथा उससे अधिक ऋण मुहैया कराने का प्रावधान है। इस योजना में अधिकतम तीन लाख तक तीस प्रतिशत अनुदान तथा पांच प्रतिशत ब्याज अनुदान की व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा की जाएगी। साथ ही गारंटी सेवा शुल्क भी राज्य सरकार ही वहन करेगा। इस वर्ष इस योजना से जिले के 100 आदिवासी युवाओं को लाभांवित करने का लक्ष्य रखा गया है। वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए जिले मे निवासरत 10वीं पास आदिवासी युवक-युवतियों के लिए बैंको के माध्यम से स्वरोजगार स्थापित करने के लिए आवेदन पत्र निम्नानुसार पात्रता शर्ताें के साथ कार्यालय मप्र आदिवासी वित्त एवं विकास निगम (आदिम जाति कल्याण विभाग) में आमंत्रित किए गए हैं। इसके लिए आवेदक को मध्यप्रदेश का मूल निवासी होना चाहिए। मध्यप्रदेश का अनुसूचित जनजाति वर्ग का सदस्य हो। 10वीं उत्तीर्ण एवं पारम्परिक शिल्पियों एवं पारम्परिक व्यवसायियों के लिए शैक्षणिक योग्यता का बंधन नहीं रखा गया है। आवेदक की आयु आवेदन दिनांक को 18 से 40 वर्ष के मध्य हो। आवेदक किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक, वित्तीय संस्था, सहकारी बैंक का चूककर्ता नहीं हो। आईटीआई, डिप्लोमा, इंजीनियरिंग, अन्य अधिकृत संस्थाओं द्वारा प्रदत्त मॉडयूलर एम्पलायबल स्किल्स प्रमाण पत्र। उद्यमिता विकास कार्यक्रम अंतर्गत प्रशिक्षित हितग्राहियों को सबसे पहले अनुदान देने की व्यवस्था भी रखी गई है।

टंटया की कहानी
बात तब की है जब हिंदुस्तान गुलामी की दास्ता झेल रहा था, उस समय बारिष होती तो ही खेती में अन्न उगता था। उस समय वर्षा के अनुपात में उदर-पोषण करने वाले तथा मालगुजारों, जमीदारों, जागीरदारों तथा साहूकारों के डंडे, यातना व शोषण के साए तले सूखी रोटी खाने वाले किसान ही होते थे। भूखे या आधे पेट ग्रीष्म की भीषण गर्मी हो या शीत की भयंकर ठंड, जंगली तन से अंदर तक कंपकपा देने वाली ठंड मूसलादार बारिश के बावजूद अपने साहस व पुरुषार्थ से मस्ती में चूर रहना ही भीलों की अदम्य क्षमता थी। इन्हीं भील किसानों के बाल बच्चे षाम के समय अपनी मस्ती में चूर दीन दुनिया से बेखबर होकर आनंद का अनुभव करते हुए तन्मयतापूर्वक कबड्डी खेल रहा था। टंटया के कबड़ी.....कबड़ी.....कबड़ी उच्चारित करते हुए विपक्ष के पाले के खिलाड़ी तेजी से पीछे हटते हुए मैदान की अंतिम सीमा तक पहुंच गए। सभी जानते थे कि टंटया की सांस लंबी स्फूर्ति व ताकत बेजोड़ है। टंटया की शारीरिक शक्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि युवावस्था में वह 80 किलोमीटर पैदल यात्रा कुछ ही घंटों में कर लेता था। तथा रुकने पर थकता भी नहीं था।
सिपाही का रुतबा
एक बार की बात है टंटया अपने साथियों के साथ मांडव जा रहा था जैस ही वह नगर की सीमा के प्रवेश द्वार से अंदर घुसने लगा तो एक सिपाई ने उसे उंची आवाज देकर रोक लिया। तब राजतंत्र और एकतंत्र प्रणाली चला करती थी। एक सिपाही भी आज के नगर निरीक्षक से ज्यादा ताकतवर होता था। किंतु अनपढ़, जंगली प्रकृति के युवाओं को किसी का भय नहीं सताता था वे तो अपने अल्हण जीवन में चकनाचूर रहते, हमेषा स्चछंद जीवन जीना जानते थे वे क्यों अंग्रेजों की गुलामी करने लगें? टंटया का दल सिपाही को देखकर हंसते खेलते चलते रहे, सिपाही ने टंटया के उपहास को घोर अपमान समझा और कहा चलो थानेदार साहब के पास चलो, और सिपाही ने रौब झाड़ते हुए डंडे को जमीन पर पटका।
तुरंत टंटया ने अपनी भाषा में कहा, देख रे सिपाही हमें डराने की कोषिष मत कर, हमनें कोई गलती तो नहीं की है जो हम तेरे थानेदार के पास जाकर हाजिरी लगाएं। इतनी जोषीली बातें उस समय कोई नहीं बोल पाता था। सिपाही डर गया उसे वहां की भीड़ के सामने अपनी इज्जत जो बचानी थी वह अपने कथित आत्मसम्मान को बचाने की खातिर चुप रहा। फिर वह सिपाही संभलते हुए टंटया के पास पहुंचा और बोला पुलिस से झगड़ा मत करना। सिपाही के नरम पड़े तेवर देखकर टंटया और उसके साथी थानेदार के पास जाने को तैयार हो गए, टंटया ने कहा, हमने कोई कोई जुर्म तो किया नहीं है फिर डर किसी बात का नहीं है चल तुम्हारे थानेदार से भी मिल लेते हैं। पूरा मामला यह था कि अंग्रेेजों के जमाने और राजषाही के दौर में थानेदार अजीब प्रक्रिया का पालन करवाते थे, उन्हें अपने सम्मान के लिए पहचाना जाता था, जो बेचारे गरीब आदिवासी होते तो जुल्म के डर से उन नियमों को मानने को बाध्य होते थे। उन दिनों मांडव के थानेदार ने भी जनता पर अपना रौब झाड़ने के लिए प्रवेष द्वार के गेट पर अपना एक टोप टांग रखा था। उसने जनता को आते-जाते टोपी को सलाम करने का ढिंढौरा पिटवा रखा था। अपने नियम का पालन हो रहा है या नहीं उसे देखने के लिए ही सिपाही की तैनाती की गई थी। जो टोप को सलाम नहीं करता था उसे सिपाही बेंत से पीटकर दंड देता था, कई बार तो जेलों में भी बंद कर दिया जाता था। टंटया और उसके साथी नियम को नहीं जानते थे। कुछ भील युवकों की उद्दंडता को देखते हुए वहां का थानेदार भी घटना स्थल की ओर रवाना हो गया। जंगली युवकों के इतने दुःसाहस को देखकर थानेदार क्रोध से तमतमा गया। निकट आने पर टंटया ने थानेदार को नमस्कार किया। राम-राम साहब, आपके इस सिपाही ने हमें आपके पास लाया है, जबकि हमने कोई जुर्म नहीं किया है, टंटया बोला? टंटया की उंची आवाज सुनते ही क्रोध भरी निगाहों से देखकर थाने बोला, कहां रहते हो? टंटया तुरंत बोला, खंडवा का जोग बड़दा मे।
थानेदार बोला- मांडव किसलिए आए हो?
राणीजी को म्हेल न, ऊदल की सांग देखण।
थानेदार-तूने हमार टोप को सलाम क्यों नहीं किया?
टंटया- टंगी हुई टोप को देखते हुए, थानेदार का उपहास करते हुए बोला, ये कौन सी बात है साबह, टोप को सलामी क्यों देवें।
थानेदार दहाड़ा........शट अप बास्टर्ड।
गांव के लोगों को उनकी जुबान से कितनी गाली दे दो वे सुन लेत हैं, लेकिन टंटया को अंग्रेजी की यह जुबान खल गई। तुरंत टंटया ने भी जवाब दिया, तू होगा तेरे गांव का थानेदार, हमसे पंगा लेने की सोच भी मत लेना, भील युवक के साहस को देखकर थानेदार भी सकपका गया। थानेदार ने वहां उपस्थित स्टॉफ को देखा, वहां 3 सिपाही ही थे, वह मन ही मन सोचने लगा कहां ये भील युवक अपनी जान हथेली पर लेकर चलते हैं इनसे बहस करना अपनी जान गवांने जैसा है फिर माहौल को संभालते हुए थानेदार टंटया के पास पहुंचा और बोला, तुम तो तीर-वीर ऐसे टांगे हो, जैसे बड़े षूरवीर हो।
टपनी ताकत को आंककर टंटया बोला- साहब अजमाकर ही देख लीजिए न। उस दुर्दांत थानेदार ने भी सोचा खूब फंसा है भील, इसके बाद भीड़ से एक मासूम बच्चे को पास लाकर उसके सिर पर संतरा रखकर थानेदार बोला, लगाओ निशाना। टंटया ने बेखौफ बाण चढ़ाया और विश्वास से तीर चला दिया, तीर सीधे ही बच्चे के सिर पर रखे संतरे पर लगा।
इसके बाद टंटया ने थानेदार पर निशाना साध लिया और कहा, चल थानेदार साबह अपनी ये टोपी उतार और यहां के लोगों को प्रणाम कर.......इस दौरान सभी सिपाही डरकर भाग गए। थानेदार ने ऐसा निषाना जीवन में पहली बार ही देखा था। इसके बाद थानेदार ने पसीना पोंछते हुए वहां खड़े लोगों से कहा, प्रणाम। इतना सुनते ही टंटया दोस्तों समेत वहां से गायब हो गया।
पिता की वृद्धावस्था
पिता भाऊसिंह की बढ़ती उम्र ने टंटया के जवानी में आने तक धीरे-धीरे पारिवारिक रूप से उसे जिम्मेदार बना दिया। टंटया खेती की ओर ध्यान देने लगा। टंटया ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। अब तक टंटया एक पुत्र का पिता भी बन चुका था। टंटया के बेटे का नाम किशन रखा था जो भगवान कृष्ण के नाम से संदर्भित था। अंग्रेजों और जमीदारों की मनमानी के चलते किसान इतने निर्बल व सहनशील हो गए थे कि हर समस्या को वे अपना भाग्य समझकर सहन कर लेेते थे। कोई कितना भी अत्याचार किसानों पर कर ले वे चुपचाप सहन कर लेते थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो, इसी कारण उनपर अत्याचार होते ही रहता था। साधारण किसान इतने दुर्बल थे, लेकिन टंटया इन सबमें अपवाद था। अचानक आने वाले कष्टों को सहन की करने की शक्ति तो टंटया को जन्मजात ही मिली थी। वह हर समस्या से आराम से निपट लेता था। अत्यंत दुर्गम स्थान पर रहने वाले भील, कोरकू, भीलाले, राठ्या, पार्या, तड़वी, गोंड, न्हाल, कोल, कोरकू व अन्य दलित व पिछड़़ी जातियों के लोगों के श्रम की कोई सीमा नहीं रहती। उनका श्रम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी मस्ती के साथ गुजरता जाता है। ऐसे लोगों को देखकर महलों में रहने वाले आश्चर्य में पड़ जाते हैं।
सभी की सहायता में धर्म
एक दिन टंटया अपने खेत में था। अचानक उसे दूर से होने वाली आवाज की ध्वनि सुनाई दी। टंटया अपने साथियों से बोला, लगता है अपने गांव में कोई आपदा आई है। टंटया उन इंसानों जैसा कभी नहीं बना जो किसी परेशानी, संकट या विपत्ति में देखकर चुप रहें या ऐसे अनजान बन जाएं जैसे कुछ देखा और सुना ही न होे। टंटया ऐसा कर्त्तव्यनिष्ठ युवक था जो संकट के समय अपनी शक्ति के अनुसार सहयोग करना अपना दायित्व समझता था। टंटया को उतावली पूर्वक गांव की ओर जाते देख साथ काम करने वाले आसपास के लोग अपने-अपने घर की ओर जाने लगे। रास्ते में ही टंटया को गांव का बदहवास इंसान मिला, टंटया ने उसे रोका और पूछा अपने गांव मंे क्या हुआ है। युवक ने सांसें भरते हुए कहा, भैया गांव में आफत आई है। एक भैसासुर घुस आया है जो लोगों की जान के पीछे पड़ा है। ग्रामीण बोला-चलो टंटया तुम भी भाग चलो, जान बच जाएगी तो ऐसे कई गांव बसा लेंगे अभी तो हमें जान बचानी है। वास्तव में हुआ ये था कि गांव में कहीं का जंगली भैंसा घुस आया था। वह इतना मदमस्त था कि जिसे भी अपनी ओर देखता उसे सींगों से निषाना बनाने दौड़ पड़ता था। टंटया दौड़ता हुआ गांव पहुंचा और भैंसा के सामने खड़ा हो गया। कई ग्रामीण सोच में बैठ गए कि देखों कितना पागल आदमी है अपनी जान देने खुद भैंसासुर के पास जा रहा है और कहने लगे कि टंटया आत्महत्या करने पहुंच गया है। शत्रु की गतिविधि का पूर्वाभाष ज्ञात करने का यह अचूक उपाय है कि उसकी आंखों की ओर दृष्टि केंद्रित कर ली जाए। ऐसा ही टंटया ने भी किया। पल भर में भैंसा टंटया की ओर नीचे सिर करके दौड़ गया, इंसान और जानवर की लड़ाई में खास बात यह होती है कि जानवर षरीर से ताकतवर होता है और इंसान दिमाग से। टंटया ने भैंसा के सींगों को पकड़ लिया। गांव के लोग शक्तिशाली पशु और एक इंसान की इस लड़ाई को भयग्रस्त होकर देखने लगे। इसे देखकर आसपास के युवाओं में जोश जागा और सभी ने एकसाथ भैंसा पर हमला बोल दिया। इसके बाद भैंसा निर्जीव होकर जमीन पर जा गिरा। इस प्रकार पूरे गांव को तहस नहस होने से टंटया ने बचा लिया। अब तक टंटया की उम्र 30 साल हो गई थी। यही दौर था जब भारतीयों ने समझ लिया था कि भारतीय लोग अंग्रेजों के राज में सुरक्षित नहीं हैं। लोगों का सोचना था कि अंग्रेज हमपर दिन व दिन अत्याचार बढाते जा रहे हैं। इसके साथ ही सरकार मालगुजारी के नाम पर किसानों से फसल का बड़ा हिस्सा ले लेती थी और किसान दो वक्त के भोजन को भी तरस जाते, प्रकृति के प्रकोप को तो वे भोग लेते, लेकिन सरकार के अत्याचार से वे परेषान हो जाते। भाऊसिंह के भलेपन और टंटया की वीरता की खबर मालगुजारों को हमेशा मिलती रहती थी। बात कहीं की भी हो, अगर कोई ताकतवर सामने आता है तो कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगता यही सोच उस समय गांव के मालगुजार की थी वह सोचता था कि अगर टंटया को वहां से बेदखल कर दिया जाए तो अपनी साख बची रहेगी और आगे के समय में हमारा कोई विरोध न कर सके। इसी दौरान एक दिन भाउसिंह की मौत हो गई, पिता की मौत से टंटया अकेला हो गया थोड़ा कमजोर भी महसूस करने लगा, जाहिर है कि अगर घर में पिता की मौत हो जाए तो बेटा को ही सारी जिम्मेदारी उठानी होती हैं। मालगुजार के एक चापलूस ने खबर दी कि मालिक भाऊसिंह तो मर गया है अब टंटया और भी निरंकुश हो जाएगा। मालगुजार ने सुन ही रखा था कि देश विदेश से किसानों के बागी होने की खबरें मिल रही हैं। टंटया ने अगर किसानों से लगान देने से मना कर दिया तो दिक्कत सामने आ जाएंगी। चापलूस ने कहा, अभी बेटी बाप के घर ही है मालिक। यानी टंटया कमजोर हो गया है, मुनीम भी मालगुजार से बोला लोहा गर्म है मालिक हथोड़ा मार ही देना चाहिए। मुनीम बोला, मालिक भाऊसिंह पर अपना चार साल का लगान बकाया है। अभी हम लगान नहीं देने के कारण टंटया से उसकी जमीन छीन सकते हैं। अभी उसके बाप की मौत हुई है तो वह विरोध भी नहीं कर पाएगा। मालगुजार बोला, लेकिन अभी उसके पिता की मौत हुई है हम ऐसा करेंगे तो ठीक नहीं होगा। इसके बाद हालातों को भांपकर मालगुजार ने टंटया को घर बुलाया। टंटया जैसे ही मालगुजार के पास पहुंचा, मालगुजार ने पिता की मौत की खबर लेते हुए दुख जताया और बोला ऐसे समय पर कहना तो ठीक नहीं लगता परंतु क्या करें हमे भी सरकार को जवाब देना है। तेरे बाप की जमीन का चार साल का लगान बाकी है। तू उसे 2 दिन में चुका दे। टंटया बोला, आपसे कुछ छिपा कहां है मालिक? अभी तो हम किसानों को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है, इस साल फसल भी नहीं हुई। मालिक मैं आपको अगली फसल पर कर्जा चुका दूंगा। मालगुजार ने दो टूक कह दिया। अब जमीन तेरी नहीं रहेगी हमें पता है तू कर्ज की व्यवस्था नहीं कर सकेगा, इसलिए अब से तेरे सारे खेत हमारे हुए। दया करो मालिक हमारी जमीन ही तो है जिससे हम अपना पेट भरते हैं। सख्त होते हुए मालगुजार बोला, जमीन तू जोत रहा है तो क्या जमीन का मालिक हो गया। मालगुजार क्रोधित हुआ। टंटया में शक्ति थी, साहस था सामर्थ्य था परंतु कृषक से मजदूर बनकर इसी गांव में काम करना उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचा देता। वह सुन्न जैसा हो गया, आंखों के सामने अंधेरा छा गया। समस्या से निपटने के लिए टंटया ने अपनी पत्नी काजलबाई और बेटा किशन को उसके मायके भेज दिया। अब टंटया जमीन विहीन हो चुका था। वह सोच रहा था कि मजदूरी न करनी पड़े इसलिए उसने अपने पिता के दोस्त शिवा पाटिल काका के पास जाने का सोचा। षिवा पाटिल वह आदमी था जिसने टंटया के पिता भाउसिंह की जमीन लेकर साझा में खेती करता था यानी उस जमीन पर टंटया का भी हक था। शिवा काका खंडवा के पोखर गांव में रहता था। एक दिन टंटया अपनी लाठी उठाकर पोखर गांव पहंुच गया, शिवा पाटिल ने टंटया को देखा तो उदास होने का कारण पूछ लिया, टंटया ने भाउसिंह की मौत की खबर दी और अपनी जमीन लुटने की कहानी भी षिवा काका को सुना दी। षिवा ने घटना पर दुख जताते हुए कहा चल बेटा जैसी उपर वाले की कलम में लिखा होता है वही होता है, इसके बाद षिवा ने अपनी बेटी को आवाज देते हुए कहा कि बेटी यशोदा जरा पानी तो ला।
यशोदा 19-20 बरस की नवयुवती थी। उसका रंग गेहंूआ, हल्की सी मोटी परंतु हष्ट-पुष्ट, तीखी नासिका व बड़ी-बड़ी कजरारी आंखें थे यषोदा की। जो भी उसे युवती को भर निगाहें देख ले वो उसका दीवाना बन जाए, उसके मुस्कुराने या हंसने पर दोनों गालों में हल्के गड्ढे उभर आने से उसकी सुंदरता हजार गुना बढ जाती थी। रात आराम से कटी दूसरे दिन सुबह उठते ही टंटया खेत चला गया। फिर नहा धोकर वह पास की प्रसिद्ध मजार पहुंच गया, हिंदू मुस्लिम पर टंटया ने कभी फर्क नहीं समझा। फिर घर पहुंचा तो यशोदा ने शिकायती लहजे में टंटया से कहा, मैं कबसे तेरा रस्ता देख रही थी। टंटया चूंकि षादीषुदा था तो उसने यषोदा की ओर ज्यादा ध्यान देने उचित नहीं समझा। भोजन करने के बाद टंटया सो गया, लेकिन उसे नींद नहीं आई। एक दिन शिवा पाटिल खंडवा गया तो यशोदा से उसकी बात हुई। यशोदा ने कहा सुन टंटया तेरी जमीन को लेकर मेरे बापू की नीयत ठीक नहीं लग रही है, कल पटवारी को बुलाया था इस लिए ही वह खंडवा गया है। मैं तुझे सावधान कर रही हूं। पर इस बात को टंटया ने हंसकर टाल दिया उसे लगा कि रिष्ते का चाचा कभी भतीजे से दगा तो नहीं करेगा। रात में जब शिवा खंडवा से लौटा तो टंटया ने साझा जमीन की बात निकाली। जमीन के बारे में सुनते ही शिवा काका ने कहा, कहां की जमीन बेटा, तेरे बाप का यहां कभी कोई खेत नहीं रहा है। तू चाहे तो मेरे ही खेत में मजदूरी कर सकता है। इतना सुनना ही था कि टंटया को क्रोध सातवे आसमान पर पहुच गया, टंटया बोला वाह रे काका मेरे खेत और मैं ही मजदूरी करूं जे कहां की रीत है? शिवा भी तैश से बोला-तम अपनी नियत मत बिगाड़ो। यशोदा द्वारा कही गई आशंका सही साबित हुई थी। टंटया को कुछ समझ नहीं आ रहा था। इस बहस के तुरंत बाद टंटया रात में ही शिवा काका के घर से निकल गया।
सुबह होते ही टंटया बड़दा गांव पहुंचा। अपने झोपड़े और बेलों को सस्ते दामों में बेंचकर नगद राशि ली खंडवा कोर्ट पहुंच गया। एक अनपढ और गांव के भील युवक को न तो नियम का पता था न ही कानून का वह तो हमेषा सोचता था कि कोर्ट न्याय का मंदिर होता है। शिवा पाटिल का पोखर में काफी दबदबा था। छल करने के बाद शिवा कोर्ट में भी जीत गया। टंटया का छोटी सी जमीन पर खेती करने की सोच वाला महल पलभर में भरभराकर ढह गया। देष में अधिकतर लोगों के साथ ऐसा ही होता है कि न्याय के समक्ष व्यक्ति की बदमाशी, झूठ आदि रुपयों के बल पर कोर्ट में जीत जाता है। अंत में टंटया को कुछ नहीं सूझा, वह अपने सभी पैसे भी गंवा बैठा था। एक दिन टंटया षिवाकाका के खेत पहुंच गया और खेत में काम कर रहे मजदूरों को भगा दिया। टंटया की हुंकार देखकर पूरा गांव सहम सा गया। शिवा पाटिल की शिकायत के बाद पुलिस ने टंटया को गिरफ्तार कर लिया और जेल में डाल दिया। न्यायाधीश ने टंटया को एक साल की कैद सुनाई। उसे नागपुर सेंट्रल जेल भेज दिय गया।
टंटया को जेल का पहला अनुभव हुआ। आधापेट कच्चा पक्का भोजन शरीर निचोड़ लेने वाला काम। बात बात पर पशुओं की तरह व्यवहार। जेल के प्रहरियों द्वारा किया जाने वाला अपमान, टंटया जैसे स्वाभिमानी को अंदर से तिलमिलाकर रख देती थी। इतिहास गवाह है कि सत्ता का संचालन शक्ति से होता है। यदि शक्ति का दुरुपयोग असहाय की सहन क्षमता से अधिक किया जाता है तो ह्दय में विद्रोह का बीज अंकुरित होना प्रारंभ हो जाता है। एक साल यातनाएं झेलने के बाद टंटया जेल से षिवा काका के गांव पोखर आ गया। वह यहां क्यों आया था यह तो खुद टंटया भी नहीं समझ पाया था, हो सकता है कि षायद पोखर गांव में यषोदा के करीब आना चाहता रहा होगा या फिर जमीन पर हक पाने के तरीके ढंूढने की कोषिष कर रहा था। यहां पर निहाल नामक युवक ही उसका सच्चा साथी था। अब टंटया ने पोखर में ही मजदूरी शुरू कर दी।
गांव के लोगों ने टंटया के प्रति गलत हवा बनानी षुुरू कर दी थी, लोग कहते थे कि जो जेल भोगकर आया हो वह अच्छा इनसान नहीं बन सकता। अब टंटया खुद को अकेला समझकर जिंदगी से जैसे तंग आ गया था। एक दिन टंटया गांव में रेवापुरी महाराज के पा पहुंच गया वे एक माने जाने पंडित थे, प्रदेष भर में उनकी चर्चा थी। टंटया नेे सोचा क्यों न महाराज जी के चरणों में ही जीवन बिताया जाए, एक तरह गांव से बहिष्कृत होने के बाद भी टंटया रेवापुरी महाराज के चरणों में जीवन बिताने लगा, एक तरह से गांव के लोगों के न चाहने के बाद भी वह पोखर में रहने लगा तो यह गांव वालों को चुनौती से कम नहीं लगा। अतः गांव वाले उसे भगाने के लिए अलग-अलग साजिषें रचनी षुरू कर दीं। टंटया गांव वालों की साजिषों से अनजान था। पोखर में राजपूत परिवार के सबसे ज्यादा लोग बसा करते थे वैसे भील परिवार कम ही थे यही कहीं 15 परिवार ही बसते रहे होंगे। इतने कम भीलों के बीच भी टंटया को कभी सहानुभूति नहीं मिली, टंटया से मिलने से पहले लोंगों के मन में पुलिस का भय बैठ जाता था, अब तक पोखर के लोगों ने टंटया को चोर उचक्के के रूप में प्रचारित कर दिया था, कहीं भी छोटी बडी घटना होते ही टंटया पर आरोप मढ दिए जाते थे, परंतु टंटया ने कभी किसी बात की फिक्र नहीं की पोखर गांव में मराठों के 18 से 20 परिवार ही थे किंतु षिवा पाटिल की मुखियागिरी और संपन्नता से सभी जलते थे जब समय-असमय पर राजपूतों ने टंटया को यषोदा से मिलते देखा तो उन्होंने अवैध संबंधों की हवा फैला दी। इसके साथ ही षिवा को नीचा दिखाना प्रारंभ कर दिया स्वजातीय न होने के कारण अफवाह ने बड़ा रूप धारण कर लिया। जवान बेटी की बदनामी से षिवा यषोदा पर रोक टोक लगाने लगा। वह भली प्रकार समझ रहा था कि राजपूतों का यह कुप्रचार ही है और वे ही बदनामी फैला रहे हैं। टंटया को भी ऐसी जानकारी से क्रोध हुआ, लेकिन दोस्त निहाल ने उसे नियंत्रित किया। पोखर के षिवा पाटिल को अपनी बेटी से टंटया के अवैध संबंधों को लेकर हुई बदनामी की बात हमेषा खलती रही उसने साजिष पूर्वक अफवाह फैलाने वाले राजपूतों पर कार्रवाई करनी चाही, लेकिन राजपूतों में संगठन होने के कारण उसकी एक न चली अंत में षिवा को टंटया ही क्रोध खत्म करने का अच्छा पात्र समझ आया चूंकि अब तक पोखर वासियों ने सभी गांवों में टंटया को बदनाम कर दिया था। एक बार गांव में लूट हो गई पुलिस का आचरण हमेषा से यही रहा है कि जांच के नाम पर निरपराध लोगों को प्रताड़ित करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देती। पुलिस ने संदेह के आधार पर ही हीरापुर गांव से टंटया और खजोड़ा नामक गांव से बिजनियां नामक विषालकाय युवक को पकड़ लिया। बिना अपराध पकड़कर ले जाने से भील युवकों ने पुलिस दल पर हमला बोल दिया। उन्होंने आक्रोष के चलते पुलिस पर तलवार से हमला कर दिया। तब जेल में कड़ी सजा के बारे में कहते हुए टंटया ने बिजनिया को समझाया कि अगर इस हमले में अगर किसी की जान चली गई तो हम सभी को फांसी हो जाएगी। क्रोध से आगबबूला बिजनिया बात समझ गया। टंटया के सुझाव पर एकमत होकर दोनों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया पुलिस ने चोरी और मारपीट के अपराध के तहत दोनों को कोर्ट में पेष कर दिया न्यायालय ने दोनों पर चोरी के आरोपों को गलत बताया। इसके साथ ही पुलिस से मारपीट के आरोप में उन्हें तीन महीने की सजा हुई। सजा काटने के लिए टंटया को जबलपुर जेल भेजा गया तथा बिजनिया को खंडवा की जेल में रखा गया। प्रकृति का भी बड़ा विधान है मानव जीनव कब कैसा परिवर्तित हो जाएगा इससे सभी अनभिज्ञ हैं संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है जिसके जीवन में उसके पास संपूर्ण बागडोर हो, ऐसा इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि मानव मूल रूप से पराधीन है व निष्चित रूप से किसके आधीन है यह कोई नहीं जानता। इस समय टंटया ने कोई अपराध नहीं किया था झूठे आरोप से क्रुद्ध होकर पुलिस पर हमला करना दोनों के बौद्धिक स्तर के कारण स्वाभाविक प्रक्रिया थी। टंटया को पहले पोखर से कैद करना व सजायाफ्ता होना ही अपने आप में पुलिस के लिए स्थायी अपराध हो गया। पुलिस की अनुचित कार्रवाई से व ज्यादती से टंटया का मन मानव की साधारण जीवनषैली से उठने लगा। अब वह मन ही मन विद्रोही हो गया परंतु वह जेल में विवष था। जेल से छूटते ही टंटया ने होल्कर सरकार के राज्य यानी पष्चिमी निमाड़ के सीवना नामक गांव को अपना निवास स्थान बनाया और सीवना में ही खेती बाड़ी करना प्रांरभ कर दिया। यह गांव सीवना पष्चिमी निमाड़ यानी खरगोन की झिरन्या तहसील में था। वहां पर टंटया की बुआ लेहबर जीजी रहती थीं जो उसके पिता भाउसिंह की बहन थी। सारा गांव उन्हें दाई मां कहकर बुलाता था बुआ के तीन बेटे थे, गंगाराम, षोभाराम और मांगीलाल। पोखरवासी दुष्मनों ने जैसे उसे चैन से जीवन न जीने देने की कसम खा रखी थी, दो बार सजायाफ्ता होने के कारण लोगों की निगाहों में टंटया पक्का बदमाष और आदतन अपराधी बन चुका था। उसे अपराधी समझकर गांव वालों ने उससे दूरी बनाई रखी जैसे समाज से निकाल दिया गया हो। समाज में सम्मानित लोग जो अपराध और गुनाहों के बल पर वैभवषाली होने से सम्मानित हुए थे। वे अपराध करते और हर घटना में टंटया का नाम लेते, पोखर के आसपास घटित होने वाली हर घटना को टंटया के नाम पर निरूपित करने की जैसी परंपरा बन गई थी। अंग्रेज सरकार में प्रतिष्ठितों और पुलिस की यातनाएं सहकर भी टंटया भाग्य का लिखा मानकर षांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। अंग्रेजों से क्रुद्ध होकर वह होल्कर राज्य में चला गया। लेकिन सही मायने में होल्कर राज्य में ही उसका सबसे ज्यादा पतन हुआ।
जलिम सिंह षिवा पाटिल का पुत्र और यषोदा का भाई था वह पोखर गांव में चोरी करते पकड़ा गया। षिवा की सहमति से ही राजपूतों ने टंटया को दूर दूर तक नामी बदमाष होने की बदनामी कर रखी थी। षिवा अपनी बेटी की बदनामी का बदला लेने के बजाय राजपूतों के साथ षामिल हो गया व्यक्ति स्वार्थ की खातिर कितना नीचे गिर जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण षिवा पाटिल ही था चूंकि षिवा पाटिल के कई गलत कारनामों में राजपूतों ने ही सहयोग किया था। अतः जालम को बचाने के लिए षिवा ने राजपूतों के संग षडयंत्र रचा उसने योजनाबद्ध तरीक से जेल में जाकर जालम को पाठ पढा दिया। षिवा की योजना के अनुसार जालमसिंह ने पुलिस को बयान दिया- यह सत्य है कि चोरी का माल मेरे घर बरामद हुआ है, लेकिन यह माल मुझे टंटया भील ने संभालने को दिया था। जिसे मैंने अपने घर में रख लिया था। यही नहीं षिवा ने जालिम के बयान की पुंष्टि के लिए गांव के दो युवकों की और गवाही भी दिलवा दी। पुलिस को टंटया भील से एक और बदला लेने का सुनहरा मौका मिल गया। पुलिस ने टंटया को पकड़ने के लिए होल्कर राज्य से सहयोग मांगना पड़ा, क्योंकि पुलिस वहां पहुंच गई। टंटया को गिरफ्तारी की खबर उसके दोस्त निहाल ने दे दी। पोखर से हांफते हुए आए दोस्त निहाल ने सीवना में टंटया को यह जानकारी दी। इसके बाद टंटया ने तीर कमान उठाई और जंगल की ओर भाग गया। पुलिस ने सीवना पहुंचकर टंटया को भगोड़ा घोषित कर दिया। कभी-कभी इंसान पषु-पक्षियों से ज्यादा असहाय हो जाता है। अब टंटया ने जंगल को ही अपना आश्रम बना लिया। उसकी नजरों में जेल से श्रेयस्कर जीवन वनवास ही लगा। वह जंगल जंगल भटकने लगा। अब उसे जंगली हिंसक पषुओं का भय भी नहीं था। प्रतिषोध कभी भी किसी मानव मन की मूल भावना नहीं रही। प्रतिषोध केवल अपमानित मन की प्रतिक्रया है लोगों ने उसके साथ छल किया। पोखर वासियों ने टंटया को दर-दर वन में भटकने को मजबूर कर दिया। टंटया के मन में था कि पोखर के बेइमानों को सजा देकर ही वह चैन की मौत मरेगा। अब वह उदर पोषण करने के लिए वह अकेले दुकेले पथिकों को लूटकर पेट की आग को षांत करने लगा। समाज मेें लूटपाट करना और दुष्मन को प्रताड़ित करके उस पर षासन करना तथा षिवा पाटिल व पोखरवासियों को राजपूतों से बदला लेने की योजनाएं बनाना उसकी दिनचर्या में षामिल हो चुकी थीं। धीरे-धीरे उसने जंगल में समाज द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रताड़ित लोगों का एक गिरोह बनाया और छोटे-मोटे डाके भी डालने लगा। टंटया ने जब मारधाड़ और लूटपाट की कार्रवाई को प्रारंभ किया तो उसे आय भी खेती से अधिक प्राप्त होने लगी, जबकि श्रम बिल्कुल नहीं था। एक साल तक वह पुलिस से बचने और बागियों को एकत्र करते रहा। 1878 की बात है। अधिकांष लोग संपत्ति और वैभव के बल पर ही जीवित रहते हैं। अपना प्रभुत्व समाज में स्थापित करना चाहते हैं परंतु जो वीर होते हैं, बहादुर होते हैं वे केवल मन के उत्साह साहस पर जीवित रहते हैं। इसलिए बहादुर लोग अपमान और अवहेलना की घटनाओं को कभी भूल नहीं पाते। टंटया ने स्वयं को वनवासी जीवन व्यतीत करने एवं स्वयं अपराधी बनाने का मुख्य कारण पोखर गांव के षिवा एवं और राजपूतों को माना। उसे पोखर गांव से इतनी चिढ हो गई थी। गांव का साधारण आदमी भी उसे मिल जाता था तो उससे भी मारपीट करने में हिचकता नहीं था। एक दिन टंटया अकेला जंगल की पगडंडी से अकेला जा रहा था तभी उसे पोखर गांव के राजपूत जमींदार सरदारसिंह का बेटा था। सरदार के तीन बेटे थे कल्लू, भीकू और मोहन। उसे देखते ही टंटया क्रोध से भरकर उसकी ओर दौड़ा। उसकी ख्ूाब पिटाई की और उसे बंधक बना लिया साथ ही रिहाई के लिए राजपूतों से 100 रूपयों की मांग रखी। संपन्न लोगों का सुदृढ संबल पुलिस होती है। सरदार ने थाने में कल्लु के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस तो पहले ही टंटया को खोज रही थी। वह और मुस्तैदी से जंगल में खोज करने लगी। सरदार ने अपने लठैतों को भी पुलिस संग भेज दिया। एक सप्ताह तक दल जंगल में खोजबीन करता रहा, लेकिन कल्लु और टंटया का पता नहीं चल पाया। दोनों दलों के वापस लौटन के बाद सरदार को अपने बेटे की चिंता सताने लगी। उसने गंभीरता से टंटया से संबंधित सूत्र खोजे और पोखर के निहाल पर उसकी नजर गई। वह अकेला निहाल के घर गया, लेकिन वहां निहाल नहीं मिला। निहाल से मजदूरी स्थल पर मिलने सरदार पहुंच गया। इसके बाद निहाल से बोला- बेटा मेरे कुल्लु को बचाकर ले आ। निहाल को उसपर दया आ गई। एक दिन बीहड़ में उसकी मुलाकात टंटया से हो गई 100 रूपये देकर उसने कल्लु को छुड़ा लिया और वापस पोखर आ गया। निहाल सरदार की चालबाजी समझ नहीं पाया। टंटया अब तक पुलिस द्वारा फरार अपराधी का व्यापक प्रचार करने तथा पोखर के राजपूतों और उनके अन्य गांवों के रिष्तेदारों द्वारा अफवाहें प्रचारित करने से बदनाम हो चुका था। कल्लू के बताए मार्ग से ही मोहन सीवना के बीहड़ में अकेले ही घुस गया। मोहन को यह विष्वास था कि टंटया से उसके मि़त्रता संबंध होने के कारण उसपर ज्यादती नहीं करेगा।़ टंटया को पता चला तो वह पोखरवासी को खोजने पहुंच गया। जैसे ही मोहन ने सामने टंटया को देखा तो रोना षुरू कर दिया। इस तरह मोहन ने टंटया से गहन मित्रता का ढोंग रचकर चार दिन और रात तक उसके साथ रहा। मोहन ने बार बार टंटया से पोखर चलने को कहा। साथ ही कहा कि जमीदार पिता से कहकर पुलिस के सारे मामले खत्म करा देगा। सीधा सरल टंटया बेचारा मोहन के बहकावे में आ गया। इसके बाद टंटया और मोहन खजोड़ा नामक गांव में टंटया के मित्र बिजनिया के घर गए। बिजनिया ने दोनों का अत्यंत आवभगत के साथ दोनों को भोजन कराया। मोहन ने अपनी वाकपटुता से बिजनियां को भी संतुस्ट किया। खजोड़ा गांव से दोनों रवाना होकर रात तक पोखर पहुंच गए। गांव पहुंचकर टंटया अपने मित्र निहाल के घर रात्रि विश्राम के लिए रह गया और मोहन अपने घर पहुंच गया। रात में निहाल ने टंटया को समझाया कि इसकी बातों में मत आओ परंतु टंटया मोहन की छलावे में फंस चुका था। टंटया सरल स्वाभाव का प्राणी था। दूसरे दिन सुबह टंटया सरदार से मिलने जैसे ही पहुंचा वहां छिपे पुलिसवालों ने उसे घेर लिया। विष्वासघात करते सबने उसे दबोच लिया। टंटया घायल षेर की तरह हथकड़ियों में जकड़ा हुआ था। उसे खंडवा जेल के सख्त पहरे में बंद कर दिया गया। उसी दिन टंटया के मित्र और विष्वासपात्र दौलिया भील को भी पुलिस पकड़कर खंडवा लाई थी। इसके दूसरे दिन ही खजेड़ा गांव के मित्र बिजनिया भील को भी पुलिस ने पकड़कर खंडवा लाया। तीनों को ही हवालात में बंद कर दिया गया। 20 नवंबर 1878 का दिन खंडवा के कोर्ट में टंटया को पेष किया गया भारत की बड़ी-बड़ी जेलों की भांति खंडवा की जेल भी बहुत प्रसिद्ध है यहां जाने के लिए केवल एक गेट है उसमें एक दूसरे के उपरांत दो बड़े-बड़े लोहे के फाटक बने हुए हैं उक्त दोनों फाटक कभी भी एक साथ नही खोले जाते थे टंटया के जेल में जाने से पहले ही वहां पर डाके के अपराध में 10 भील सेवक सजा काट रहे थे। टंटया के जेल आने की खबर लगते ही वे सभी टंटया के वार्ड में आ गए। उन्होंने टंटया से जेल की यातनाओं के बारे में बताया और जेल जीवन से मुक्ति की बात कही। टंटया ने बहुत आसानी से कहा कि मैं तुम्हारी समस्याओं को समझता हूं दोस्तों, क्योंकि टंटया पहले भी दो बार जेल जा चुका था। एक दिन वार्डन की पिटाई कर दी गई। जेल में किसी ने षिकायत नहीं की जब पूछा गया तो हर कैदी ने न देखने की अनभिज्ञता जता दी। स्वयं वार्डन भी यह नहीं देख पाया था कि उसे किसने पीटा किंतु खंडवा जेल परिसर में यह हवा फैल गई थी कि वार्डन की पिटाई टंटया ने ही की है। 24 दिसंबर 1878 को रात के 11 बजे के करीब वार्ड नंबर 7 में दौलिया ने उठकर अपने कपड़े उतारे और उन्हें बांधकर लंबा किया फिर उसे कड़े से बांधा फिर उसने 6 फीट उंचाई पर बंधे कड़े में यत्न के साथ चुपचाप कपड़ों की रस्सी को दोनों मुंह मिलाकर उन्हें बल देकर व्यवस्थित किया। देखते ही देखते दोलिया नट की भांति रस्सी द्वारा लोहे की छड़ तक चढ गया। वहां पर दोलिया ने देखा तो कपड़े के पार्ष्व में एक छिद्र नजर आया। इसके बाद उसने छिद्र के आसपास को नाखूनों से कुदेरना प्रारंभ कर दिया। इसके बाद दीवार की एक एक ईट को निकालना षुरू कर दिया। उसने यह काम बिजनिया और टंटया के उत्साहवर्धन के साथ किया दीवार में सुरंग बनने के साथ ही तीनों एक एक करके जेल से बाहर निकल गए। वार्ड नंबर 7 के पास ही 8 नंबर था जहां पर टंटया के भील युवक कैद थे उसकी दीवार 20 मीटर उंची थी। वे एक दूसरे का सहयोग करके उपर तक चढ गए जिन लोगों के पास साहस और कुछ कर गुजरने का संकल्प होता है परिस्थितियां भी उनका ही साथ देती हैं। रात के सन्नाटे में सभी भाग निकले सुदृढ और विषाल जेल से फरारी की घटना को लोगों ने चमत्कार की भांति समझा। लोग आपस में बातें करते कि टंटया चमत्कारी है। उसके पास देवी की कोई ताकत है। वृद्धजन भी टंटया को चमत्कारी मानने लगे क्योंकि उनकी आयु में आजतक कोई कैदी भाग नहीं सकता था। लोगों ने टंटया को मसीहा मान लिया देखते ही देखते टंटया प्रसिद्ध हो गया। टंटया की प्रसिद्धि में अंग्रेज सरकार न विषेष भूमिका निभाई। सरकार ने समाचार पत्रों में टंटया की फोटो खबर छपवाई कि वह पफरार हो गया है। उसपर इनाम रखा। इससे टंटया और चर्चित हो गया। टंटया की फरारी से मालगुजार सरकार, सरकार के चाटुकार और गरीबों का खून चूसने वालों में भय का संचार हो गया। वहीं आम जनता ने टंटया के लिए खुषियां मनाईं। आम जनता जानती थी कि टंटया एक डाकू लुटेरा है, लेकिन उसने कभी भी गरीबों को नहीं सताया। जेल से बाहर आते ही टंटया अपने साथियों के साथ जंगल की ओर भाग गया पुलिस को लाचार देखकर आम जन बहुत खुष हुए। जब मानव के मन में प्राणों का भय व्याप्त हो जाता है तो वह बड़े से बड़े खतरे को भी सहज ही उठाने विचलित नहीं होता। जंगल की घनघोर ठंड हवाएं चल रही थीं, लेकिन भील युवाओं में इनका बिल्ुकुल असर तक न था। इसके बाद वे लोग एक बजाज दंपति के घर पहुंच गए टंटया को देखकर दंपति डर से गए, लेकिन टंटया ने कहा हमें सिर्फ तन ढकने का कपड़ा दे दो बजाज ने सभी को कपड़े दिए। इसके बाद बजाज की पत्नी ने कहा अरे भईया आपके चेहरे देखकर लग रहा है कि आपने कई दिनों से खाना नहीं खाया है। उस महिला ने 6 से 7 लोगों का खाना टंटया और साथियों को दे दिया बजाज दंपति के इस प्रेम को देखकर दौलिया बहुत खुष हुआ। टंटया का एक सदगुण था कि वह परोपकार करने वालों को कभी भूलता नहीं था और अवसर आने पर उनका सहयोग भी करता था। टंटया की इसी नीती का परिणाम आज भी निमाड़ में देखने मिलता है यह धारणा है कि भील बारह बरस में भी बदला लेते है। इस घटना के लगभग 4 साल बाद 1883 में टंटया अपने भगाड़े जीवन में पुनः रम गया। एक दिन टंटया वहीं गांव फिर आया और बजाज दंपति को इतना धन दिया कि उनकी दरिद्रता खत्म हो गई। इस प्रकार टंटया एक गांव से दूसरे गांव दूसरे से तीसरे घूम रहा था। टंटया की प्रसिद्धि इतनी फैल चुकी थी कि गांव के लोग उसे देवता तुल्य मानने लगे थे। टंटया अब गिरफ्तारी से पहले वाला भोला भाला टंटया नहीं रह गया था। वह पहले जैेसे किसी की बातों पर आसानी से विष्वास नहीं करता था। उसने अपने संवदेनषील मन को नियंत्रण में कर लिया था। समय और जमाने की चालाक बाजी ने बदमाषी व विष्वासघात ने उसे सिखाकर उसे मानव की स्वार्थपरायणता से गहरा परिचय करा दिया था। अब वह पुलिस, प्रषासन, विष्वासघाती और संपन्न लोगों का जैसे षोसण करने वालों को अपना दुष्मन समझने लगा था। गरीब जनता के आदर उत्साह और प्यार ने उसमें नव उत्साह का संचार कर दिया था। वह गरीबों दलितों और स्वजाति बंधुओं के सामने बिना ताज का बादषाह बन गया। जंगल और गांवों में टंटया का एकछत्र जैसा राज हो गया। जनता के प्यार ने उसे दायित्व का भान कराया। उसके मस्तिस्क में बडदा के ब्राहृमण द्वारा दी गई भविस्यवाणी के बोल अब गंभीरता से उद्घोषित होने लगे कि जीवन में गौर, ब्राहमण, बच्चे और स्त्री निर्बलों को कभी मत सताना। टंटया ने सोच विचारकर निर्णय लिया कि सरकार और सरकार के पिठ्ठुओं से मुकाबला करना है तो गरीबों में, जाति बंधुओं में निर्बलों से तीखे तेवर वाले युवकों को तैयार करके संगठित करना होगा। इस निष्चय पर वह गांव गांव भ्रमण करने लगा। भ्रमण के दौरान वह गरीबों की यथासंभव मदद करते चलता थ।
पत्नी-बच्चे का रखा ध्यान
टंटया की विषेेषता थी कि वह जितना भी लूटता सभी में बराबरी से बांटता था और अपने हिस्से का कुछ भाग गरीबों को दान दे देता था। इसी बीच वह एक रात अपने ससुराल गया और पत्नी को पैसे देकर वहां से निकल आया। मार्च 1879 को वह एक भील बाहुल्य गांव में पहुंच गया ग्रामवासी खुष होकर उसकी खुषामद में जुट गए होली का त्योहार प्रारंभ हो गया था। इस पर्व पर गांव में टंटया को पाकर गांव वालों ने अपने को खुषनसीब समझा। टंटया के प्रसिद्ध मांस का भोजन बनाया गया। महुए की दारू पूरे गांव वालों को पिलाई गई। सभी ने झूकर होली मनाई। 6 अप्रैल 1879 को टंटया वहां से अपने अनुचरों के साथ खंडवा की ओर रवाना हो गया। यह मिट्टी का समतल मार्ग था मार्ग सुनसान था। यहां से पथिक आते जाते नहीं थे यदाकदा उंट पर या घोड़े पर चढे एक दो पथिक मिल जाते थे। इसी बीच खंडवा की ओर से एक बैलगाड़ी में बारदी गांव के निवासी सरदार और रामजी नाम दो युवक सामान खरीदकर गांव लौट रहे थे। दूर से ही टंटया को देखकर वे भाग गए। सामान को टंटया ने लूट लिया। जून 1879 में आधी रात लगभग टंटया उसके विषाल गिरोह के साथ भिनपान गांव आया कुछ दिन पूर्व ही हिम्मत पटेल को सामने देखकर टंटया की आंखों में उसके झूठे गवाही का दृष्य याद आ गया। उसने हिम्मत से बदला लेने के लिए वह भिनपान गांव में में पहुंचाया हिम्मत यहीं का जमीदार था। उसके पास लठैतों और धन की कोई कमी नहीं थी। पुलिस भी उसके लिए हर पर तैयार रहती थी। अब टंटया ने सारी संभावनाओं को मद्देनजर योजनाबद्ध तरीके से गांव में प्रवेष किया और हिम्मत के घर धावा बोल दिया डाकुओं के आने की खबर से गांव वाले डरकर भागने लगे हिम्मत के लठैत भी भीलों के आगे दुम दबाकर भाग गए। जमींदार का घर लुटने की खबर सुनते ही गांव के लोग हिम्मत के घर के सामने आ गए तथा स्वयं वहां पर टंटया को देखकर वापस भाग गए। टंटया ने घर को घेरकर हिम्मत को पकड लिया और बिजनियां ने हिम्मत के दिल पर गोली चला दी। टंटया ने उसकी पत्नी और बच्चे का बाल भी बांका नहीं किया। इसके बाद टंटया ने हिम्मत के रिष्तेदारों को लूटकर गरीब बना दिया। टंटया ने जिस तरह से हिम्मत से बदला दिया। उसकी खबर पूरे प्रांत में आग की तरह फैल गई थी। पुलिस भी यह खबर सुनकर भौचक्की रह गई और यह सोच में लग गई कि टंटया इतना ताकतवर कैसे हो गया और उसका तंत्र इतना मजबूत कैसे हो गया। अब टंटया को पकड़ना पुलिस और सरकार की नाक की बात बन गई। उच्च अधिकारियों की बैठक में निर्णय लिया गया कि टंटया को जल्द से जल्द पकड़ा जाए। पुलिस ने भी सोचा कि अगर समय से टंटया नहीं पकड़ा गया तो पुलिस कमजोर हो जाएगी और जनता में उसका विष्वास खत्म हो जाएगी। जनता भी कभी पुलिस का सहयोग नहीं करेगी। अब टंटया को पकडने के लिए स्पेषल टीम बनाई गई। अनेक स्थानों से दक्ष पुलिसकर्मियों को बुलाया गया और सिर्फ टंटया को गिरफ्तार करने के लिए विषेस दल का गठन किया गया जो सिर्फ टंटया को पकड़ने के लिए ही काम करने वाला था। पुलिस की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी भिनपान गांव में जिस तरह से टंटया ने प्रतिकार लिया था। उसके बाद से तो गांव वाले भी पुलिस का सहयोग करने को तैयार नहीं थे। पुलिस को पूरा विष्वास हो गया था कि टंटया का दुःसाहस और बढेगा और आगे भी कई घटनाएं घटित हो सकती हैं। पुलिस ने टंटया को जंगल में अलग अलग जगह खोजा पुलिस ने उसका पता बताने वाले को ईनाम देने की भी घोसणा कर दी। पुलिस ने जाहिर सूचनाएं जारी की ढिढौंरा पिटवाया, लेकिन कोई असर नहीं हुआ अंग्रेज सरकार ने भूमि कर वसूलने के लिए एक एक कर्मचारी को नियुक्त कर रखा था जिन्हें मालगुजार कहा जाता था। जनता से निराष होकर पुलिस ने मालगुजारों की ओर ध्यान लगाया। अधिकारियों ने सोचा कि मालगुजार सरकारी कर्मचारी होकर जनता से प्रत्यक्ष संपर्क में हैं तथा अधिक रूप से संपन्न भी हैं। अतः अधिकारियों ने मालगुजारों की संपत्ति लूटी जाने और भय पुरस्कार का प्रलोभन देकर टंटया को पकड़वाने के लिए सहमत किया मालगुजारों को हिम्मत की हालत के बारे में पता था। एक बार पुलिस अधिकारी ने एक मालगुजार की सूचना के आधार पर पुलिस के 100 से ज्यादा सिपाही अपने अपने हथियार लेकर जंगल की ओर रवाना हो गए। रात में एक समूह में सोऐ भीलों को पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया ओर उन्हें बांध दिया। दरअसल पुलिस ने 14 भीलों को इसलिए पकड लिया था कि उसे भ्रम हो गया था कि ये युवक टंटया और उसके साथी थे टंटया को पुलिस ने उसके 13 साथियों संग पकड़ लिया है। यह खबर पुलिस ने हर तरफ फैला दी। पुलिस अधिकारी अपने पर फूले नहीं समा रहे थे। सभी अधिकारी डींगे मारने में व्यस्त हो गए। पकड़े गए भील सरदार के खुद को टंटया भील कहने पर सभी ने विष्वास किया, क्योंकि उस समय टंटया को पहचानने वाला कोई भी पुलिसकर्मी नहीं मौजूद था। जिस पुलिस अधिकारी ने टंटया दोलिया और बिजनिया को पहले गिरपफतार किया था। वह भी खंडवा आया उसने जैसे ही पकड़े गए। लोगों को देखा तो कह दिया कि यह टंटया नहीं है और यह दौलिया है। ऐसा सुनते ही पुलिस वालों के होष फाक्ता हो गए। उन्हें सहज ही विष्वास नहीं हुआ षिनाख्त करने के लिए भागदौड़ की, लेकिन सब व्यर्थ वह दोलिया ही था दौलिया को बंदी अवस्था में कोर्ट भेजा गया। आनन-फानन में पुलिस ने हिम्मत की मौत के मामले में दौलिया के सम्मिलित होने के सबूत जुटाए। न्यायालय ने सबूतों के आधार पर दौलिया को आजीवन कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेजने का हुक्म दिया। इसके बाद दौलिया को कालापानी भेजने से पहले जबलपुर जेल भेजा गया। जब टंटया को पता चला की मालगुजार ने लालच में आकर 13 साथियों को गिरफ्तार कराया तो वह गुस्से में लाल हो गया और आगे की योजना पर काम करने लगा। इसके बाद दौलिया ने मालगुजार के घर हमला बोल दिया और मालगुजार को तडपा तडपाकर मार डाला। अंग्रेज सरकार जब किसी को काला पानी की सजा देती थी तो उसे अंडमान निकोबार द्वीप भेजा जाता था, लेकिन सभी सजा पाए कैदियों को साल में एकसाथ वहां भेजा जाता था। अतः एक साल तक दौलिया को जबलपुर जेल में ही रहने की व्यवस्था की गई जबलपुर जेल में ही दौलिया की मुलाकात डाके की सजा भुगत रहे अपने एक साथ हीरिया से हुई। यह 1880 की घटना है। दोनों दोस्तों ने बारीकी से अध्ययन किया और जेल से भागने की योजना बनाने लगे। एक रात खंडवा जेल जैसी क्रिया करके दौलिया और हीरिया ने जेल से मुक्ति पा ली। यह खबर जैसे ही जेलाध्यक्ष को मिली तो वह जेल के अंदर गया और दौलिया को वहां न पाकर सुन्न होकर बेहोष हो गया। जबलपुर जेल से कैदियों के भागने की खबर आग की तरह पूरे प्रदेष में फैल गई और पुलिस की बहुत किरकिरी हुई। अधिकारियों ने सोचा कि हमले दौलिया को आम कैदी मानकर बड़ी भूल की थी। टंटया ने दौलिया और हीरिया के मिलने पर जष्न मनाया। एक दिन सुबह टंटया दौड़ा-दौड़ा किसान की वेषभूषा में पुलिस थाने पहुंच गया और बाहर बैठे एक बंदूकधारी सिपाही की उपेक्षा करके अंदर घुसने लगा। सिपाही ने उसे ललकारकर कहा, ऐ रुक कहा जा रहा। भयग्रस्त होने का नाटक करते हुए टंटया बोला- मैं सिर्फ थानेदार साहब को ही जानकारी दूंगा।
इतने में थानेदार आ गया और उसने टंटया से पूछा- क्या बात है क्यों हंगामा करता है। टंटया ने डरते हुए कहा- साहब मुझे ईनाम दोगे तो ही मैं आपको बताउंगा। थानेदार ने टंटया के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ठीक है बता, तो टंटया बोला-साहब मैंने जंगल में टंटया को देखा है, वह आराम कर रहा है। टंटया का नाम सुनते ही थानेदार के पैरों तले जमीन खिसक गई, लेकिन वह संभलते हुए और इनाम के लालच में पड़ते हुए बोला चल मुझे रख ले वहां। इसके बात टंटया पैदल और थानेदार घोड़े पर सवार होकर जंगल की ओर चलने लगे। उत्साहित थानेदार टंटया की गिरफ्तारी पर स्वयं की वीरता का स्मरण करके भविष्य के सपने बुनने लगा, उसकी हालत षेखचिल्ली की भांति होने लगी थी। घोड़े पर सवार चलते गया टंटया थानेदार को विभिन्न मार्गों से घुमाता हुआ जंगल की ओर ले गया। टंटया के सुझाव पर थानेदार ने घोड़े को एक जगह बांध दिया और साथ साथ सघन वन में घुस गया। इसके बाद टंटया ने अपना रूप दिखाया तो थानेदार डर गया, टंटया ने थानेदार के हर वस्त्र को उतार दिए और नंगा करके भगा दिया। बताया जाता है कि थानेदार रात के अंधेरे में चौकी पहुंचा था। इसी बीच कोर्ट ने बिजनिया की फांसी की सजा सुना दी। यह खबर सुनकर टंटया की हालत चिंताजनक हो गई। वह षोक और गम में डूब गया। जैसे किसी व्यक्ति का जवान पुत्र मौत की कगार पर हो और वह कुछ न कर पा रहा हो ऐसी ही स्थिति टंटया की हो गई थी। बिजनियां के फांसी के दिन उसने एक भी हथियार हाथों में नहीं उठाए और हर पल रोता रहा। इसी बीच कोदवार नाम गांव के एक पटेल जिसे सब कोदवार पटेल कहते थे ने सरकार के प्रति स्वामी भक्ति और पुरस्कार के लोभ में टंटया को गिरफ्तार कराना चाहा। कोदवार पटेल का यह दुर्भाग्य था कि उसकी हर गतिविधि की सूचना सबसे पहले टंटया को मिल जाती थी क्योंकि वह जहां रहता था। वो गांव भीलों की जनसंख्या से भरा पड़ा था। 1 अप्रैल 1881 को टंटया कोदवार गांव पहुंच गया और पटेल को सबक सिखाने की ठान ली। इसके बाद टंटया ने पटेल और उसके सारे परिवार को अन्न दाने सहित लूट लिया और उसे भिखारी बना दिया। हर बार कि तरह इस बार भी वहां पुलिस पहुंच गई आखिरकार पुलिस टंटया को नहीं खोज पाई। अब टंटया ने अपने प्रमुख साथियों के साथ गहन विचार विमर्ष किया उसने लोगों से कहा कि हमें अलग-अलग बिखरकर काम में लग जाना चाहिए। टंटया अपने कुछ साथियों के साथ ताप्ती नदी के किनारे से होते हुए महारास्ट की सीमा तक पहुंच गया। इसके बाद टंटया झूठे नाम से महेष्वर के पास विश्राम करने पहुंच गया। एक महीने बाद फिर टंटया ने अपने सभी साथियों को एकत्र करके बागदा नामक गांव को लूट लिया। एक मालगुजार ने फिर धोखा किया और टंटया की सभी जानकारी पुलिस को दे दी। इसके बाद पुलिस पिफर से टंटया को पकड़ने पहुंच गई,लेकिन खुफिया जानकारी लगने से टंटया इस बार भी बच निकला और आक्रोष के कारण मालगुजार से बदला लेने की सोचने लगा। टंटया ने मालगुजार के घर जाकर लूट करने का प्लान बनाया,लेकिन पुलिस ने मालगुजार की सुरक्षा के लिए एक कांस्टेबल को नियुक्त कर रखा था, लेकिन जैसे ही कांस्टेबल ने डाकुओं के दल को देखा तो वह डर गया। टंटया ने लूटपाट की और चल दिया। एक दिन टंटया को जानकारी मिली की कोई नामी अंग्रेज अधिकारी टंटया को पकड़ने के लिए रेलगाड़ी से आ रहा है। इसके बाद टंटया भी टेन के पास पहुंच गया और कुलियों के साथ ही अंग्रेज अधिकारी का सामान लेकर चलने लगा। इसी बीच एक सिपाही से टंटया ने कहा साबह मैं टंटया के बारे में जानकारी दे सकता हूं। सिपाही ने लालचवष उस कुलीनुमा टंटया को अंग्रेज अधिकारी से मिला दिया और अधिकारी को लगा कि ऐसे में तो मैं एक ही दिन में टंटया को पकड़ लूंगा। इससे मेरी सरकार में और भी ख्याति बढ जाएगी अधिकारी ने अस्त्रों के साथ सिपाहियों को साथ लिया और निकल पड़ा जंगल में टंटया को खोजने जंगल में पैदल पैदल चलकर अधिकारी और सिपाही थककर चूर हो गए टंटया उन्हें आड़ी-टेढी पगडंडियों में घुमाता रहा। इसके बाद वह अचानक सबकी ओर मुंह करके खड़ा हो गया और बोला लो पकड़ लो मुझे मैं ही टंटया हूं। सभी चकित रह गए इतनी देर में ही टंटया घने बीहड में लुप्त हो गया।  अंग्रेज अफसर ने सारा जंगल छान मारा पर टंटया नहीं मिला। इसके बाद थककर सभी बैठ गए इसके तुरंत बाद भी टंटया प्रगट हो गया और बोला अरे इतने जल्दी थक गए साहब पकड़ो न मुझे तुरंत ही पुलिस अधिकारी ने उसपर गोली चला दी लेकिन इतने में फिर टंटया कहीं गायब हो गया। पुलिस ने एक एक झाडी छान मारी पर टंटया नहीं मिला पुलिस दल को लगा कि टंटया को बड़ा जादूगर है या उसके पास कोई जादुई ताकत है। वे सभी भयभीत हो गए एक दिन निहाल ने टंटया को जानकारी दी कि उसके बेटे का ब्याह होने वाला है तो टंटया भी विवाह में पहुंच गया, लेकिन वहां पुलिस तैनात थी भीलों में माना जाता है कि बेटे का ब्याह में मंडप पिता ही सजाता है। इसी बात के चक्कर में पुलिस यहां पहुंची थी लेकिन टंटया ने महिला का वेष रखकर मंडप सजा दिया और पुलिस समझ ही नहीं पाई कि यह टंटया है। सभी लोगों को पता था कि यह टंटया है लेकिन पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगने दी। यदि पुलिस अधिकारी भीलों की इस परंपरा का ज्ञान रखते थे। टंटया को पकड़ने में देरी नहीं होती जैसे ही रस्में खत्म हुईं टंटया ने पिफर अंग्रेज पुलिसवालों को सिर का घूंघट हटाते हुए कहा। ऐ अंगरेजों की औलादों हिम्मत है तो आओ पकड़ो मुझे इसके बाद टंटया गांव से गायब हो गया। पुलिस इस बार पिफर खाली हाथ लौट गई 23 मई 1881 के दिन टंटया अपने दल के साथ ताप्ती नदी के दूसरे किनारे से होता हुआ हिजरा नामक गांव में पहुंच गया। इसके बाद टंटया ने धारतलाई गांव में डाका डाला और जंगल-जंगल से होकर होल्कर राज्य के निमाड़ में आकर एक गांव में आराम से रहने लगा। पुलिस ने अपने जासूसों से यह पता कर लिया कि टंटया होल्कर राज्य के किसी गांव में निवास कर रहा है इसी बीच टंटया की चुगली एक नाई ने कर दी। टंटया को यह रास नहीं आया उसने एक दिन नाई को धमकाकर उसे भी  लूट लिया टंटया के कारनामें के चर्चे होल्कर राज्य में ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेष और अंग्रेजों का सीपी प्रान्त व महारास्ट तक सीमित न होकर पूरे भारत देष में थे अंग्रेज साषित निमाड़ के अलावा होल्कर राज्य के गरीब और दलित टंटया से मिले बगैर ही उसे अपना रहनुमा मानते थे। एक दिन भीलखेरी गांव के सुनार ने टंटया के दल का भोजन सत्कार किया इसके बाद उन्हें आराम करने की सलाह देकर उसने पुलिस को सूचना दे दी और सभी डाकु पकड़ लिए गए यषवंत राव होल्कर की विधवा पत्नी केसरबाई उर्फ कस्डाबाई ने 17 फरवरी 1844 को खंडेराव होल्कर की मत्यु के बाद भाउ होल्कर के छोटे पुत्र मल्हार राव होल्कर को गोद लेकर 27 जून 1844 को तुकोजीराव द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठाया। अतः टंटया के दल को तुकोजीराव द्वितीय के दरबार में पेष किया गया। टंटया को गिरफ्तार देखकर तुकोजीराव कापफी प्रसन्न हुए इसके बाद अंग्रेज सरकार के आग्रह को मानकर तुकोजीराव ने जंजीरों में जकड़कर टंटया को खंडवा की ओर भेजा लोगों को पता चला कि टंटया मामा को खंडवा पैदल मार्ग से ले जाया ता रहा है तो लोग सड़क पर आ गए,लेकिन लोग खुसुर फुसुर करने लगे खंडवा आने पर पता चला कि पुलिस जिसे पकड़ लाई है वह टंटया मामा है ही नहीं। वह तो जेल से दो बार फरार हो चुका दौलिया है जैसे ही टंटया को दौलिया की गिरफ्तारी की खबर लगी उसने सुनार के घर सहित पूरे गांव में आग लगवाकर लूट मचाई होल्कर राज्य में टंटया की पहली लूट थी। मालगुजारों सहित सभी अधिकारियों के कागज पत्र भी टंटया ने आग के हवाले कर दिया टंटया ने कहा कि मैं कागज पत्र जलाकर होल्कर महाराज को चुनौती दे रहा हूं इसके बाद टंटया अंजनगांव से निकलकर इजिरल गांव पहुुुंचा वहां भी हर घर को लूटा। इसके बाद जामली गांव में लोगों से पैसा वसूल किया इसके बाद साथी हीरिया के साथ जंगल में चला गया। बोरगांव में थाने का इंस्पेक्टर नाथू खां टंटया के पीछे पड़ गया,लेकिन टंटया के साथियों ने उसे पहले ही खबर कर दी और टंटया वहां से भाग गया नाथू खां को पता चला कि हीरिया का एक अभिन्न दोस्त हैै। जिसका नाम इसलाम है तो नाथू ने इसलाम को बहला फुसलाकर टंटया को घेरने की कोषिष की 16 दिसंबर 1881 को इसलाम ने प्रलोभित होकर नाथू खां को घर बुलाकर हीरिया को मिलने बुलाया जैसे ही हीरिया अपने मित्र इसलाम से मिलने पहुंचा वहां बैठे इंस्पेक्टर नाथू खां ने उसे दबोच लिया दोस्त की दगाबाजी का षिकार हीरिया भी पुलिस की गिरपफत में आ चुका था। हीरिया को कोर्ट ले जाया गया। इसके बाद उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। खंडवा और जबलुपर की अभेद किलेनुमा जेल को नाखूनों का औजार से पफरार होने वाले दौलिया को हीरिया के साथ जबलपुर जेल की सख्त सुरक्षा में रखा गया। अब पुलिस ने सारा ध्यान टंटया की ओर केंद्रित किया अंग्रेज पुलिस व होल्कर पुलिस ने संयुक्त टीम का गठन किया। दोनों सरकारों के वीर, बहादुर, इमानदार, और साहसी जासूस इन्सपेक्टरषेर अली गोकुल राय और नाथू खां के नेत्त्व में टंटया पुलिस नई नई योजनाएं बनाने में लगी रहती थी। परिस्थितयों को भांपकर टंटया भी पहले से ज्यादा सतर्क रहने लगा था वह जब भी जंगल में रहा कभी भी दो रात लगातार एक जगह में सोया नहीं। वह जहां रहता था उससे दो मील दूर निवास करता कहीं और नींद लेता हर बार अपने ठिकाने बदलते रहता था जहां रहता। वहां से अपने हर सबूत मिटाते चलता यही कारण था कि पुलिस को कोई भी सुराग नहीं मिल पा रहा था कि टंटया को पकड़ें तो कैसे पकड़े भीलों, दलितों और ठेठ पिछड़ी जातियों और गरीबों पर उसका अटूट विष्वास था। 1881 को दौलिया और हीरिया को कालापानी भेज दिया गया। इससे टंटया को बहुत दुख हुआ वह बचने के लिए हर तरपफ भागते रहता था टंटया 1882 में सदल बल के खरगा गांव पहुंच गया। वह उस नाई से बदला लेना चाहता था जिसने लालच वष उसकी जानकारी पुलिस को भेजी थी। टंटया ने नाई के बेटे का अपहरण कर लिया। करीब 10 दिन बाद नाई का बेटा भागते हुए आया और पुलिस को जानकारी दी कि वह भागकर आया है इसके बाद पुलिस उसके बताए स्थानों पर दबिष देने पहुंच गई। इसके साथ ही पुलिस जहां भी जाती जिस गांव में पूछताछ करती वहां के लोगों को प्रताड़ित भी करती। गांवों में सिपाहियों की नियुक्ति की गई। इसके बाद पुलिस ने भीलों पर निर्ममता बरसानी प्रारंभ कर दिया। आदिवासियों को पकड़कर जेल में भरा जाने लगा। अब पुलिस ने नई चाल चली भीलों को प्रलोभन देकर एक दल तैयार कराया। उन्हें कहा गया कि आपको सजा नहीं दी जाएगी। अगर आप लोग टंटया का पता बताकर हमें जानकारी दो इसके बदले इनाम देने की भी लालच दी गई इस दल के युवाओं को पता चला कि टंटया तिनसिया गांव में अपने दल के साथ विश्राम कर रहा है तो पुलिस को इसकी जानकारी दी पुलिस भी जैसे तैयार बैठी थी। पुलिस और महाराजा होल्कर ने गांव के मालगुजार से सहायता मांगी और कहा कि आप टंटया को गिरफ्तार कराइए लेकिन मालगुजार ने पुलिस के साथी होने के बाद भी टंटया को सूचना दी कि पुलिस तुम्हें पकड़ने आ रही है। इस प्रकार टंटया भाग गया जब होल्कर महाराजा को ज्ञात हुआ कि मालगुजार ने ही सूचना लीक की है तो उसे सजा के रूप में कहा गया कि आप एक महीने के अंदर में टंटया को नहीं पकड़  पाए तो दंड के लिए तैयार रहना। एक महीने बीत गए पर मालगुजार ने पुलिस को एक सूचना तक न दी इसके बाद होल्कर महाराजा ने मालगुजार की सारी संपत्ति राजसात कर सडक पर ला दी। दौलिया और हीरिया को 16 दिसंबर 1881 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी एक साल बाद 16 दिसंबर 1882 को टंटया ने दोस्तों के लिए बदला लेने के लिए हेमगिरी गांव जाने का संकल्प लिया। इसके लिए टंटया ने चाल चली एक ग्रामीण से पुलिस को समाचार भिजवाया कि टंटया हीरापुर गांव में डाका डालने पहुंचा है इसके बाद जब पुलिस वहां पहुंची तो सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। पुलिस रात में खालीहाथ लौटने लगी तो देखा कि रात में हेमगिरी गांव में अग्निकांड हुआ है। पुलिस वहां पहुंची तो देखा कि डाकु लोगों को लूट रहे हैं और उनके घरों को खिलौनों की भांति आग लगा रहे हैं यह देखकर राजपूतों ने गुस्से से डाकुओं पर हमला बोल दिया। टंटया के सामने होने से डाकुओं का साहस कई गुना बढ गया था। चारों ओर से जैसे युद्ध छिड़  गया हो ऐसा द्ष्य वहां दिखाई दे रहा था। देखते ही देखते राजपूतों का लीडर जब्बर सिंह के सीने में गोली लगी और वह भगवान को प्यारा हो गया। अपने लीडर की मौत से भयभीत राजपूत वहां से जान बचाकर भाग गए। नाथूखां जैसे चतुर अपफसर भी टंटया को गिरफ्तार करने में असपफल हो गया। इससे खींचकर अंग्रेज सरकार ने नाथू और होल्कर पुलिस के कप्तान मंसासिंह को उलटे टंटया के सहयोगी होने के आरोप में 1882 में जेल भेज दिया लेकिन कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। जनवरी 1883 में टंटया ने एकबार पिफर एलिचपुर जिले के गांव मेलघाट जमीदारी में डाका डाला। अब टंटया और भी ज्यादा मजबूत हो गया था। उसने सारे निमाड़ में उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया था। टंटया को पता चला कि निमाड़ जिले के रोहिनी गांव का निवासी एक मालगुजार भीलों के लगातार संपर्क में रहता है और टंटया की जानकारी पुलिस को भेजता है। इसके बाद टंटया ने वह कर दिखाया जो कोई बडा हीरों पिफल्मों कर करके नहीं दिखा सकता। 16 पफरवरी 1883 को उसने घोषणा की कि मैं मालगुजार को लूटने जाउंगा जिसकी हिम्मत हो तो पकड़ के देख लेना। पुलिस ने भी टंटया को गिरफ्तार करने की योजना बना ली। टंटया ने अब पुलिस को ठगने की सोची वह रोहिनी गांव के पास आया और वहां से खबर भेज दी कि टंटया अब मेलाघाट गांव में एक अमीर के घर डाका डालेगा।  इसके बाद पुलिस भी मेलाघाट गांव की ओर रवाना हो गई। इसके बाद आराम से टंटया रोहिनी के मालगुजार के घर पहुंचा और वहां लूटपाट कर घर में आग लगा दी। पुलिस अपने को ठगे जाने से खींजकर रह गई। अब होल्कर सरकार भी लगता है डर गई थी उसने अंग्रेज सरकार का संपूर्ण सहयोग देने की ठान ली। इसके बाद होल्कर सरकार ने अपने सबसे प्रसिद्ध पुलिस अधिकारी मोहम्मद खां को सारे अधिकार देकर नियुक्त कर दिया। मोहम्मद ने गरीबों को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया। लोगों के घरों में तोड़फोड़ मचाने लगा लोगों को बाहर जाने को कहने लगा। हर तरह से भीलों और आदिवासियों को यातनाएं देने लगा इसके बाद भी लोग सब सहते रहे लेकिन मुंह नहीं खोला। किसी ने सही कहा है जहंा पुरुषार्थ होता है वहां पर इंसान अपमान से चिढता है। बात 27 जुलाई 1883 की है टंटया बडपानी गांव में प्रवेष कर गया पुलिस वहां भी पहुंच गई 20 सितंबर 1883 को टंटया ने केलिगांव में भयंकर डाका डाला। पुलिस जैसे जैसे उसके पास आती टंटया दूसरे गांव पहुंच जाता था इस प्रकार आंख मिचौली से प्रसाषन हिल गया। पुलिस त्रस्त सी हो गई इसी बीच छोटे छोटे लुटेरे भी टंटया के दल के होने का नाटक करके लूटपाट करने लगे प्रदेष की व्यवस्था चरमरा सी गई। गलत काम कोई करता लेकिन उसका आरोप टंटया पर मढा जाने लगा। फिर से पुलिस ने अधिकारियों को नियुक्त किया उसका नाम दीनानाथ था यह इंस्पेक्टर बड़ा ही कर्मठ अधिकारी था। सबसे पहले इस अधिकारी ने टंटया के बारे में अध्ययन किया और उसके कारनामों को देखने की कोषिष की 1883 में टंटया को नए दल मिल गए। इनमें भीलों के अलावा बंजारा कोरकू जनजाति के युवा भी टंटया के सहयोगी बन गए। अब जो भी नीति पुलिस बनाती उसे सबसे पहले टंटया को पता चल जाता।
अब टंटया बरार निमाड़ होशंगाबाद जिलों से होता हुआ होल्कर राज्य की सीमा और खानदेश प्रदेश के बीच स्थित जंगल में रहने लगा। पुलिस को टंटया की उपस्थिति की सूचना मिल गई। इससे पहले की पुलिस टंटया को पकडऩे पहुंचती इससे पहले ही खुफिया तंत्र से टंटया को पता चल गया कि पुलिस पकडऩे आ रही है और वह भागकर खरगांव आज का खरगोन पहुंच गया। इस बार होल्कर महाराज ने कप्तान मुहम्मद खां को टंटया पकड़नेे के लिए नियुक्त किया। यह निमाड़ क्षेत्र में रतनसिंह से पहले डिस्ट्रिक सुपरिटेंड के पद पर नियुक्त अधिकारी था। दोनों को मिलकर टंटया को शीघ्र पकड़ लाने का आदेश हुआ, लेकिन हुआ यह कि दोनों अधिकारियों ने अपने निजी विवाद के चलते एक दूसरे को नीचा दिखाना शुरू कर दिया। फलस्वरूप टंटया को मिला ही नहीं। दोनों अधिकारियों की आपसी लड़ाई देखकर टंटया ने उसका खूब फायदा लिया और क्षेत्र में कई डाके डाले, लोगों में खौफ पैदा किया। टंटया को पकडऩे में सबसे बड़ी समस्या यह आ रही थी कि जिसे सरकार ने टंटया को पकड़ने के लिए नियुक्त कि वे सभी अधिकारी दूसरे जिलों से थे। इस तरह 1884 में होल्कर और अंग्रेज सरकार को टंटया के कारण बहुत ज्यादा पैसे खर्च करने पड़े टंटया की सहायता के अपराध में हजारों गरीबों और भीलों को प्रताड़ित किया जाने लगा। निमाड़ जिले में मुलगांव नामक एक गांव था। जहां सरकार ने एक कांस्टेबल को नियुक्त कर रखा था। वह बड़ा साहसी और अपने कार्य में दक्ष होने के कारण लोगों की कृपापात्र भी बना हुआ था। एक दिन टंटया भी मुलगांव में घुस गया और उस कांस्टेबल को गोली लग गई। मुंकुंद नामक एक भील होल्कर राज्य में निवास करता था। टंटया को पहले भी जानकारी मिली थी कि यह युवक टंटया की मुखबिरी करके सारी जानकारी होल्कर राज्य को देता है। इसके बाद टंटया का निशाना वही युवक बना टंटया ने उसे मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार टंटया ने 1885 में होल्कर और अंग्रेजों को चुनौती देकर कई डाके डाले। सन 1886 में टंटया ने होशंगाबाद जिले में 5 और बैतूल जिले के एक तथा सीपी प्रंात के निमाड़ और होल्कर राज्य के निमाड़ में अनेकों स्थान पर डाके डाले। निमाड़ जिले में बारूर नामक एक गांव था यहां पर समृद्धों की बाढ़ सी थी जमीदार जैसे लोग भी ज्यादा थे। इन्होंने सोचा कि टंटया को पकड़ा दिया जाए तो प्रतिष्ठा और अधिक बढ़ जाएगी। टंटया को जब इनके कृत्यों की जानकारी मिली तो मालगुजार के घर में लूटपाट मचा दी और उसे सबके देने के लिए बेटे का अपहरण कर लिया। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद बंजारी नामक गांव में नियुक्त पुलिस कांस्टेबल बापूमंग ने अपनी चतुराई से टंटया के दो साथी भौलिया और औलिया को गिरफ्तार कर लिया। टंटया अपने साथियों के साथ ऐसे व्यवहार को सुनकर फिर कुपित हो गया। इसके बाद टंटया ने गुस्से में उसे कांस्टेबल को मौत न देकर उसकी नाक काट दी। टंटया सोचता था कि ऐसा करने से लोग और डरेंगे ताकि मुखबिरी न कर सकें। अब होल्कर महाराज और अंग्रेजों को लगा कि टंटया को सागर में मोती निकालने जैसा होगा। इसके बाद प्रशासन ने फिर बड़ा बदलाव किया। 1886 में मध्य भारत देश के एजेंट बड़े साहब लेपेट ग्रीफिन ने टंटया को गिरफ्तार करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। इस बड़े प्रोजेक्टर के लिए लेपेट ने सीआईई मेजर ईश्वरी प्रसाद को भी अपना सहयोगी बनाया। लेपेन ग्रीफिन ने नए तरीके से कार्य को शुरू किया उसने जगह-जगह पुलिस के तंबू लगाए गए। एकदिन टंटया और उसके साथी जंगल से जा रहे थे, सामने से एक बारात देखकर टंटया ने बारातियों से निवेदन किया कि हमें दुल्हा-दुल्हन के चेहरे देख लेने दो। बारातियों को लगा कि अब तो सबकुछ लुट गया पता नहीं ये डाकु दुल्हा दुल्हन के साथ क्या करेंगे। इस बीच दुल्हा का पिता आगे आया और अपनी पगड़ी टंटया के पैरों पर रखते हुए बोला टंटया मामा हमारे पार आपको देने के लिए कुछ भी नहीं हैं- इस पर टंटया बोला अरे मामा भी बोलता है और डरता है। टंटया डोली के पास पहुंचा और देखा तो उसमें एक दुल्हा और अत्यंत रूपवान दुल्हन थी। कहते हैं टंटया ने अपने जीवन में कभी भी महिलाओं के साथ कोई गंदी हरकत नहीं की जैसा अन्य डकैत करते हैं। टंटया ने दुल्हन को देखकर कहा देखों कितनी रूपवान कन्या है पर शरीर पर कोई रकम नहीं है। इस पर दुल्हे के पिता ने कहा, दुल्हन के घरवाले गरीब हैं मामा। इसके बाद टंटया ने अपने खजाने से सोने-चांदी के जेवर निकाले और दुल्हा दुल्हन को दिए। बारात को यह अंदाजा नहीं था कि हमें लूटने वाला डाकु खुद लुट रहा है लेकिन वह तो रॉबिनहुड था रॉबिनहुड। इसके बाद टंटया अपने रास्ते चला गया।
प्रेम यदि एकतरफा होता है या पुरुष यदि किसी स्त्री पर आसक्त होता है तो उसे अपने मन की इच्छाओं को नियंत्रित रखकर अपनी शालीनता, अपनी गंभीरता,अपना बड़प्पन और अपनी इच्छाशक्ति द्वारा प्रेमिका के ह्दय के अंकुर को पल्लवित करना चाहिए। जिससे जीवनभर संबंध सहज, स्वाभिक व स्थायी रह सके। धोखे में रखना, भ्रमित करना, बलात प्रेम सौंपना या आरोपित प्रेम कभी जीवन भर सफल नहीं होता। आजकल तो शारीरिक आकांक्षाओं के परिणामस्वरूप जो लालसा जागृत होती है उसे ही प्रेम कह दिया जाता है।
टंटया प्रेम के इसी अनुभूति के धरातल में खड़ा था। उसका यशोदा से प्रेम तो बचपन से ही था, साथ ही एकतरफा भी नहीं था परंतु फिर भी वह शारीरिक सबंधों की संकीर्णता मेंजकड़ा हुआ भी नहीं था। परंतु भारतवर्ष की यह विडंबना ही कही जाएगी कि यदि कोई युवा पुरुष और नारी साथ-साथ घूमते हैं साथ बात करते हैं तो हमारा समाज उन्हें शारीरिक संबंधों पर आधारित संबंध घोषित करके दोनों को बदनाम करने से पीछे नहीं हटता। टंटया को पोखर गांव में निवास करने पर यशोदा से गलत संबंधों का अपराधी समझकर दोनों को बुरी तरह बदनाम किया गया था। यशोदा की दूर-दूर तक बदनामी होने के कारण उसकी शादी नहीं हो पाई थी। ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि पोखर छोडऩे के बाद टंटया कभी यशोदा से मिला हो। यशोदा का भाई जालिमसिंह आलसी अवसरवादी और कायर था। उसके पिता शिवा पाटिल ने उसे हिस्से का धन देकर घर से बेदखल कर दिया था। इसके बाद जालिमसिंह पता नहीं कहां चला गया, शिवापाटिल भी मौत के आगोश में चला गया। अब शिवा की सारी दौलत यशोदा के नाम थी। इसी प्रकार पोखर के जमीदार सरदार उसके बेटे मोहन की भी मौत हो चुकी थी। और सरदार की पत्नी गजिया और मोहन की पत्नी सारसी के अधिपत्य में आ गई। मोहन वही व्यक्ति था जिसने 1878 में टंटया को धोखे से गिरफ्तार कराया था। और वहीं से टंटया बागी हो गया था। अब गजिया बहुत घमंडी हो चुकी थी। अकेली यशोदा को देखकर वह अकसर ताने कसती थी कि देखों टंटया से इसके अवैध संबंध थे। एक बार यशोदा को अपनी जमीदारी के हिस्से में गजिया से कुछ जुआर लेनी थी। इस पर गजिया ने यह देने से मना कर दिया। एक दिन पंचायत बैठाकर यशोदा का अपमान भी कराया और जुर्माने स्वरूप 100 रुपए वसूले गए। टंटया को जब पता चला तो वह आग बबूला हो गया 27 अक्टूबर 1887 को वह अपने कुछ साथियों सहित पोखर गांव पहुंच गया। गजिया ने जब डाकुओं को अपने सामने देखा तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुल हो गई। टंटया ने उससे कहा- मोहन के कपट का कंगन मुझे दे दो। इस पर गजिया ने कहा- आ बेटा बैठ। इस पर टंटया ने कहा- अपने पति और औलाद जैसा कपट न कर बुढिय़ा। इसके बाद टंटया ने उसके पूरे घर को लूट लिया। अब यशोदा से किए बुर व्यवहार का फल भोग बुढिय़ा कहकर टंटया ने गजिया की नाक काट दी। यशोदा के प्रेमपाश में बंधे टंटया ने आज तक किसी महिला से ऐसा कृत्य नहीं किया था, लेकिन प्रेम ही ऐसी चीज है जो सब करा देती है। 28 अक्टूबर 1887 को डिस्ट्रिक सुपरिटेंडेंट साहब ने टंटया के इस अद्भुत डाके को सुनकर भारी पुलिस बल पोखर गांव भेजा। इसी बीच होल्कर राज्य में 17 जून 1886 को होल्कर महाराज तुकोजीराव द्वितीय का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद 3 जुलाई को उनके बेटे शिवाजी राव होल्कर गद्दी पर बैठे। शिवाजी राव होल्कर एक कुशल प्रसाशक थे। होल्कर रियासत पश्चिम में पश्चिम निमाड़ से लेकर उत्तर पश्चिम में रामपुरा, भानपुरा, गरोठ तक फैली थी। सिंधिया राज्य की ग्वालियर, देवास, धार, रतलाम, जावरा और राजस्थान की सीमाएं होल्कर राज्य से मिली हुई थीं। 1888 के शुरू से ही टंटया पुलिस और मालवा भील करपस भूपाल पलटन ने एकसाथ टंटया को पकडऩे का निश्चय किया। 17 मार्च 1888 को टंटया ने विसतार नाम गांव में एक भयानक डाका डाला। लूट के बाद टंटया बैतूल के जंगल में चला गया। कुछ दिनों बाद बैतूल से निकलकर 27 अक्टूबर 1888 को होल्कर राज्य के एक गांव में डाका डाला। इस बीच अंग्रेज सरकार को सनसनीखेज जानकारी हाथ लगी कि कुछ प्रसाशनिक अधिकारी और पुलिसकर्मी टंटया की सहायता कर रहे हैं जानकारी लीक कर रहे हैं। कर्मचारियों के दुराचरण की जानकारी महाराजा होल्कर को दी गई। अब टंटया बहुत चिढ़चिढ़ा और कमजोर हो गया था। उसका बल छय हो गया था, उम्र का प्रभाव भी पड़ रहा था। साथियों के न रहने पर यह होना सही भी था। टंटया ने अपने 11 साल के बागी जीवन के दौरान 400 से ज्यादा डाके डाले। हजारों परिवारों की दुआएं कमाईं। दुर्जनों की बुरी हया भी उसे मिली। अब टंटया के साथ बिजनिया, दौलिया, मेदिया और हीरिया जैसे जांबाज, बहादुर, साहसी और बुद्धिमान साथी भी नहीं थे। हजारों भील दोस्त और नागरिक जेल में नारकीय जीवन जी रहे थे। पुलिस की बढ़ती कार्रवाई के कारण कई बार उसे दो से तीन दिन तक भूखा रहना पड़ रहा था। इस प्रकार की अवस्था में कोई व्यक्ति कितने दिनों तक स्थिर रह सकता है। उसकी उम्र 48 हो गई थी। वह सोच रहा था कि आत्मसमर्पण कर दे ताकि उसे फांसी न हो पाए। आत्मसमर्पण करने के लिए उसने प्रयास भी शुरू कर दिए थे। मई़ 1889 में बनेर नाम गांव में गणपत राजपूत नामक एक आदमी टंटया के करीब आया। गणपत की कई अधिकारियों से अच्छी बनती थी। गणपत ने कहा, कि एक उच्चाधिकारी से मैं तुम्हारी मुलाकात करा दूंगा। इससे टंटया ने गणपत पर आसानी से भरोसा कर लिया। जीवन में किस मोड़ पर कौन कैसा मिल जाए, उससे लाभ होगी या हानि। मन में गहराई से क्या छिपा रखा है यह आज तक कोई भी नहीं जान पाया। शायद इसलिए संसार में मानव एक ऐसा प्राणी जिसके हाथों जीवन की संपूर्ण बागडोर नहीं है। गणपत ने टंटया को अधिकारी इश्वरी प्रसाद से मुलाकात कराने को कह दिया और उसमें विश्वास भर दिया कि मैं ही सबसे विश्वासपात्र हूं। रक्षाबंधन का पावन पर्व पास आ गया था। रक्षाबंधन के एक दिन पहले गणपत टंटया से मिला और कहा- मामा मेजर से मिलने का समय पास आ रहा है मामा। चलो तुम मेरी घरवाली से राखी बंधवा लो, मुझे अपना रिश्तेदार मान लो। 11 अगस्त 1889 को सावन महीने का अंतिम दिन यानी पूर्णिमा था। टंटया लगभग 11 बजे अपने कुछ ही अनुचरों के साथ गणपत यानी अपने बहनोई के घर पहुंच गया। इसके बाद गणपत ने अपनी पत्नी से कहा कि तुम्हारे भाई टंटया आ गए हैं चल राखी बांधने की तैयारी शुरू कर। फिर गणपत ने कहा अरे मामा आज रक्षा बंधन का दिन है ये बंदूक दूर कर दो। टंटया के विरोध के बाद भी गणपत ने उससे बंदूक छीन ली और घर के अंदर ले जाकर रख दिया। रक्षाबंधन का विश्वास सूत्र इतना प्रबल होता है कि सालों से अपने बदन में लगी बंदूक विदा करने से नहीं रोक पाया। इसी बीच नाश्ता पानी लगाया गया। वे सभी उसे ग्रहण कर ही रहे थे कि घर के अंदर से अचानक 30-32 लोग निकल आए और टंटया साथियों सहित पकड़ा गया। ये इश्वरी प्रसाद के पुलिसवाले थे जो सादी वर्दी में गांवों में घूम रहे थे और गणपत के घर के अंदर छिपे हुए थे। लोहे की जंजीरों से टंटया को जकड़ लिया गया। इसके बाद भी पुलिस संतुष्ट नहीं हुई उसने आसपास कई हष्टपुष्ठ कर्मियों को लगा दिया। टंटया यह भूल गया था कि समय प्रतिकूल होने पर बलवान गजराज भी एक तुच्छ चीटी के आगे मारा जाता है। रक्षाबंधन के पावन पर्व पर बहन के नाम पर भाई की गिरफ्तारी, कैद तथा जंजीर व जेल का उपहार बहुत कम लोगों को नसीब होता है। इतिहास गवाह है कि गणपत की योजना में उसकी पत्नी की तनिक भी भागीदारी नहीं थी, लेकिन ये बात टंटया को कौन बताना, रक्षा सूत्र कलंकित हो गया। आनन फानन में पुलिस ने उसे खंडवा जेल ले आया। वह 1878 में भी खंडवा की जेल में कैद हुआ था। जेल में रखे सूत्रों के आधार पर कोई भी यह सिद्ध नहीं कर पाया कि गिरफ्तार आदमी टंटया है, क्योंकि जब उसकी ऊंचाई नापी गई तो वह 3 इंच अधिक ऊंचा हो गया था। इसी बीच टंटया के शिकार हजारों लोगों से उसकी पहचान कराई गई। सबने उसे पहचाना कि यही टंटया मामा है। इसके बाद टंटया को जबलपुर जेल ले जाया गया। टंटया को जिस भी मार्ग से ले जाया जाता वहां के लोगों की आंखों में आंसू होते। इसके बाद टंटया को इंदौर की मल्हारगंज थाने में भी रखा गया। इंदौर की सीआईए जेल रजिस्टर नंबर दो में टंटया की आमद और जबलपुर की रवानगी तथा टंटया की हथकड़ी व बेडिय़ों का विवरण दर्ज था। शिवाजी राव होल्कर ने टंटया को कम सजा देने की बात कही थी, लेकिन तब तक अंग्रेजों से उनके संबंध बेहतर नहीं थे। 26 नवंबर 1889 का दिन जबलपुर के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण दिन था। क्योंकि यहां की कोर्ट में हजारों लोग जुटे थे। अंग्रेज सरकार ने टंटया के अपराधों को खूब बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत किया। टंटया मामा को फांसी की सजा सुनाई गई। नागपुर और जबलपुर के कानूनविदों ने टंटया की फांसी रद्द करने दावे प्रस्तुत किए, लेकिन अंग्रेजों ने एक न सुनी। राजपूताना गजट व दिल्ली के समाचार पत्रों ने लिखा, टंटया को फांसी या कालापनी की सजा के बदले उसे उसके योग्य काम देकर उसकी क्षमताओं, बुद्धि और साहर का सरकार सदुपयोग करे। देश में जिस तरह से डाकुओं को पुलिस नहीं पकड़ पा रही है तो टंटया उस समस्या का सबसे बड़ा हल निकाल सकता है। कांटे से कांटे निकालने के लिए टंटया का उपयोग किया जा सकता है। पर अंग्रेज सरकार के कानों में जू तक नहीं रेंगी। कोई कहता है टंटया को जबलपुर जेल में फांसी दी गई, कोई कहता कि पुलिस ने उसे जंगल में ले जाकर गोलियों से भून दिया, क्योंकि आजतक किसी को टंटया की मृत देह नहीं सौंपी गई। लेकिन सबसे प्रबल तर्क यह है कि इंदौर के निकट खंडवा रेलमार्ग पर टंटया को ले जाकर गोलियों से भून दिया गया। वहीं पर बनी एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंटया मामा की समाधि भी कहा जाता है। इस मार्ग पर आज भी रेलगाडिय़ा ं कुछ पल के लिए रुककर टंटया मामा को सलामी देती हैं। यह सत्य है या नहीं आजतक पता नहीं चला, लेकिन यह धारणा ज्यादा प्रचलित है कि यह उक्त स्थल पर रेल का चालक रेल की गति कम करके टंटया मामा को सलामी नहीं देता तो ट्रेन कुछ आगे चलकर अपने आप रुक जाती है। यह बात टंटया मामा की शक्ति स्वीकारने के लिए बाध्य कर देती है।
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