Tuesday, October 14, 2025

शाखा के अनुशासन से खुले सेवा के रास्ते


 राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बारे में​ विस्तृत जानकारीयुक्त लेख डॉ. दीपक राय


RSS का शताब्दी वर्ष : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बारे में बहुत कुछ जानना जरूरी है
प्रसंगवश
डॉ. दीपक राय, भोपाल
राष्ट्र साधना के लिए राष्ट्र प्रथम के लक्ष्य के साथ अपना सफर प्रारंभ करने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। 100 साल का यह सफर सुगम नहीं रहा। संघ के हर स्वयंसेवक ने अनुशासन के रास्ते इन 100 सालों में, नि:स्वार्थ अपने खाते में कई उपलब्धियां हासिल की हैं। संघ के सफर का सबसे बड़ा पड़ाव मैं 'सेवा' को मानता हूं। यह बात तथ्यों के साथ जानना जरूरी है।वर्ष 1925 की विजयादशमी के दिन जब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी, तब उन्होंने कहा था कि राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लिए अपना जीवन-सर्वस्व आत्मीयतापूर्वक अर्पित करने को तैयार नेता ही स्वयंसेवक हैं। महात्मा गांधी ने कई अवसरों पर संघ के अनुशासन और राष्ट्र सेवा की सरहाना की थी। वर्ष 1934 में गांधीजी ने वर्धा में आरएसएस के एक शिविर का दौरा भी किया था जहां उन्होंने संघ में  समरसता, अनुशासन, अस्पृश्यता के पूर्ण अभाव, उच्च सादगी की प्रशंसा की थी। 16 सितंबर 1947 को गांधीजी ने दिल्ली में आरएसएस की एक सभा को संबोधित करते हुए आरएसएस की सेवा एवं बलिदान भावना को सराहा था। संघ के शताब्दी वर्ष समारोह में 1 अक्टूबर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई यह बात— 'खुद दुख उठाकर दूसरों के दुख हरना। ये स्वयंसेवक की पहचान है। संघ देख के उन क्षेत्रों में भी कार्य करता रहा है जो दुर्गम हैं, जहां पहुंचना सबसे कठिन है।' बहुत महत्वपूर्ण है। संघ की 100 वर्षों की इस गौरवमयी यात्रा की स्मृति में भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट और स्मृति सिक्के भी जारी किए हैं। 27 सितंबर 1925 को जब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, तब शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा कि आगामी सौ वर्षों में यह संगठन इतना विशाल और प्रभावशाली बन जाएगा। जिस तरह विशाल नदियों के किनारे मानव सभ्यताएं पनपती हैं, उसी तरह संघ के किनारे भी सैकड़ों जीवन पुष्पित-पल्लवित हुए हैं। शिक्षा, कृषि, समाज कल्याण, आदिवासी कल्याण, महिला सशक्तिकरण, समाज जीवन के ऐसे कई क्षेत्रों में संघ निरंतर कार्य करता रहा है। विविध क्षेत्र में काम करने वाले हर संगठन का उद्देश्य एक ही है, भाव एक ही है— राष्ट्र प्रथम। संघ का कार्य लगातार समाज के समर्थन से ही आगे बढ़ते रहा है। संघ-कार्य सामान्यजन की भावनाओं के अनुरूप होने के कारण शनैः शनैः इस कार्य की स्वीकार्यता समाज में बढ़ती चली गई। राष्ट्र-कार्य हेतु समाज की बहनों की भागीदारी के लिए राष्ट्र सेविका समिति की भूमिका इस यात्रा में अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। संघ जब से अस्तित्व में आया है तब से संघ के लिए देश की प्राथमिकता ही उसकी अपनी प्राथमिकता रही। आज़ादी की लड़ाई के समय डॉक्टर हेडगेवार जी समेत अनेक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, डॉक्टर साहब कई बार जेल तक गए। आजादी की लड़ाई में संघ ने कितने ही स्वतन्त्रता सेनानियों को संघ संरक्षण दिया। हिंसा से प्रभावित लोगों को सुरक्षा, चिकित्सा उपलब्ध कराई, विस्थापित लोगों का पुनर्वास कराया। विभाजन से पहले भी आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी एम.एस. गोलवलकर और संघ के कई वरिष्ठ नेताओं ने पंजाब के विभिन्न हिंसाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था और उन्होंने वहाँ के लोगों को आत्मरक्षा और राहत कार्यों के लिए संगठित किया था। तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने भी अपने परिवारों और समुदाय की रक्षा के लिए संघ की मदद ली थी।  द ट्रिब्यून अख़बार ने अपनी एक रिपोर्ट में आरएसएस को “The sword arm of Punjab” कहा था। 1984 में जब सिख विरोधी दंगे के दौरान स्वयंसेवक सिखों की रक्षा और राहत कार्यों के लिए सबसे आगे रहे। लेखक खुशवंत सिंह ने कहा है कि  इंदिरा गांधी की हत्या के बाद में हिंदू-सिख एकता बनाए रखने में आरएसएस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मार्च 1947 में, मुस्लिम लीग द्वारा उकसाई गई भीड़ हरमंदिर साहिब की ओर बढ़ी, तो तलवारों और लाठियों से लैस आरएसएस के स्वयंसेवकों ने उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। कश्मीर से गोवा और दादरा नगर हवेली तक, संघ ने भारत की अखंडता को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभाई है। आरएसएस स्वयंसेवकों ने 1947-48 के युद्ध के दौरान सेना की सहायता भी की थी। 1954 में स्वयंसेवकों ने दादरा और नगर हवेली को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराने में अग्रणी भूमिका निभाई। गोवा की आज़ादी के लिए आरएसएस ने भूमिगत स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया था। पुर्तगाली सैनिकों की गोलीबारी में कई स्वयंसेवकों ने अपने प्राण न्योछावर भी किए। उनका बलिदान गोवा के भारत-विलय में निर्णायक साबित हुआ। शताब्दी वर्ष में आरएसएस पंच-परिवर्तन के माध्यम से स्वदेशी, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता और परिवार प्रबोधन का संदेश जन-जन तक पहुंचाने का पुण्य कार्य कर रहा है। निरंतर राष्ट्र साधना में लगे संघ के खिलाफ साजिशें भी हुईं, संघ को कुचलने का प्रयास भी हुआ। ऋषितुल्य परम पूज्य गुरु जी को झूठे केस में फंसाया गया। लेकिन संघ कभी नहीं डिगा। प्रारंभ से संघ राष्ट्रभक्ति और सेवा का पर्याय रहा है। विभाजन की पीड़ा में जब लाखों परिवार बेघर थे तब स्वयंसेवकों ने शरणार्थियों की सेवा की। संघ की शाखाएं व्यक्ति निर्माण की नर्सरी हैं, जहां अनुशासन, नेतृत्व और कर्तव्यनिष्ठा सिखाई जाती है। हमने देखा है कि देश में प्राकृतिक आपदा हो या कोई संकट, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक सेवा कार्य करते दिख जाते हैं। ऐसे स्वयंसेवकों की तपस्या और समर्पण ने इसे विश्व का सबसे बड़ा गैर लाभकारी संगठन बनाया है। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाना, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे राष्ट्रीय संकल्पों में भी संघ के कार्यकर्ताओं का सक्रिय योगदान भूला नहीं जा सकता। कोविड-19 महामारी के दौरान भी संघ और उसके स्वयंसेवकों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए मई 2021 में लगभग 300 स्वयंसेवकों ने कोलार में लंबे समय से बंद पड़े एक अस्पताल को मात्र दो सप्ताह में फिर से शुरू कर दिया।
वर्ष 1952 में स्थापित, अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, आज देश का सबसे बड़ा आदिवासी कल्याण संगठन है। वर्तमान में यह संगठन देश के 323 ज़िलों की लगभग 52,000 बस्तियों और गाँवों में 20,000 से अधिक परियोजनाएँ चला रहा है। इन परियोजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, कौशल विकास और सांस्कृतिक पुनर्जागरण जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं। आज भी प्राकृतिक आपदा में हर जगह स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचने वालों में से एक रहते हैं। एक समय में जहां सरकारें नहीं पहुंच पाती थीं वहां संघ पहुंच जाता। अलगाववाद और उग्रवाद झेल रहे पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों में आरएसएस ने 1946 में गुवाहाटी में पहली शाखा स्थापित की।आरएसएस दशकों से आदिवासी परंपराओं, आदिवासी रीति-रिवाज, आदिवासी मूल्यों को सहेजने-संवारने का अपना कर्तव्य निभा रहा है। सेवा भारती, विद्या भारती, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम, आदिवासी समाज के सशक्तिकरण के मॉडल हैं। संघ की हर महान विभूति ने, हर सर-संघचालक ने भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी समरसता के लिए समाज के सामने एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान का स्पष्ट लक्ष्य रखा है। आज संघ के समक्ष अलग चुनौतियां हैं। दूसरे देशों पर आर्थिक निर्भरता, हमारी एकता को तोड़ने की साजिशें, डेमोग्राफी में बदलाव के षड़यंत्र जैसे मुद्दों पर संघ कार्य कर रहा है। यह गर्व की बात है कि स्वदेशी भावना के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इन चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस रोडमैप भी बना लिया है। वर्ष 2026 में संघ के शताब्दी वर्ष के पूर्ण होने पर हर भारतीय राष्ट्रयज्ञ में अपनी भूमिका निभाएगा और भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने में योगदान देगा। साल 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य पूरा करने में भी संघ के कार्यकर्ता अपना बहुमूल्य योगदान देंगे, स्वयंसेवक देश की ऊर्जा बढ़ाएंगे, देश को प्रेरित करेंगे। अपने इन संकल्पों को लेकर संघ अब अगली शताब्दी यात्रा शुरू करने केे लिए तैयार दिख रहा है।

RSS : जड़ों से वट वृक्ष बनने की यात्रा


Deepak Rai Article for RSS @ 100 Years


*राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 100 वर्ष : संगठन को शक्ति और ऊर्जा देने वाले व्यक्तित्व*
प्रसंगवश
डॉ. दीपक राय, भोपाल।
इस विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) 100 वर्ष का हो रहा है। इन 100 साल की यात्राओं को तभी समझा जा सकता है, जबकि इसकी जड़ों की ओर गहनता के साथ देखा जाए। हमें यह पता है कि कोई भी पेड़ अपनी जड़ों  की दम पर ही मजबूत बनता है। संघ रूपी पेड़ को वटवृक्ष रूपी मजबूती प्रदान करने के लिए यूं तो हर स्वयंसेवक का श्रेय है, लेकिन इसकी जड़ों को सींचने में कुछ प्रमुख महानुभावों ने मुख्य भूमिका निभाई है। वर्ष 1925 की विजयादशमी भारतवर्ष के लिए स्वर्ण अक्षरों में तब दर्ज हुई जबकि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी, इसी दिन संघ की स्थापना हुई। इन 100 वर्षों में संघ ने न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन उसके नेतृत्वकर्ताओं ने संगठन को डिगने नहीं दिया, यह अपने 'राष्ट्रप्रथम' के लक्ष्यों के साथ निरंतर हरा—भरा होते रहा। आरएसएस को अब तक 6 सरसंघचालकों का नेतृत्व प्राप्त हुआ है। आपने, अलग—अलग परिस्थितियों, अलग-अलग कालखंड में संगठन को नई दिशा, नई दशा और ऊर्जा दी।
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार: महाराष्ट्र के नागपुर में 1 अप्रैल 1889 को जन्मे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक थे। उनका  कार्यकाल 1925-1940 के बची रहा। उनकी सोच थी कि भारत की गुलामी का कारण असंगठित हिंदू समाज है। यही कारण है कि उन्होंने युवावस्था में ही क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया। उनके विचारों के बाद संघ की नींव रखी गई। डॉ. हेडगेवार ने 'शाखा' के माध्यम से अनुशासन, संगठन और राष्ट्रभक्ति का बीज बोया। संघ का बीज अंकुरित होकर एक पौधे का रूप ले रहा था, तभी 21 जून 1940 को वे दुनिया छोड़कर चले गए।
माधव सदाशिव गोलवलकर श्रीगुरुजी : माधव सदाशिव गोलवलकर श्रीगुरुजी संघ के दूसरे सरसंघचालक रहे। 19 फरवरी 1906 को जन्मे श्रीगुरुजी का कार्यकाल सबसे लंबा 1940-1973 (33 वर्ष) तक रहा। 1947 के विभाजन में लाखों शरणार्थियों की सेवा, 1948 में गांधीजी हत्या के बाद लगे प्रतिबंध का सामना के बीच उन्होंने संघ को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। सांस्कृतिक राष्ट्र की अवधारणा उनके नेतृत्व में ही सामने आई।
बाला साहेब देवरस : 11 दिसंबर 1915 को जन्मे बाला साहेब का कार्यकाल  1973-1994 तक रहा। संघ को समाज के अधिक निकट कैसे लाया जाये? इस कार्ययोजना को उन्होंने परिणाम तक पहुंचाया। 'संघ को सेवाकार्यों' से जोड़ने की पहल उनके कार्यकाल में ही प्रारंभ हुई। देवरस साहब का स्पष्ट मानना था कि संघ का कार्य केवल एक वर्ग का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज का है। वनवासी, दलित और वंचित समाज को संघ की धारा से जोड़ने का अभियान उनके नेतृत्व में ही धार पकड़ पाया। 1975-77 के आपातकाल में संघ के कार्यकर्ता लोकतंत्र की रक्षा जेल गए और आंदोलन किए।
प्रो. राजेंद्र सिंह रज्जू भैया : 29 जनवरी 1922 को रज्जू भैया का जन्म हुआ। उनका कार्यकाल वर्ष 1994-2000 तक रहा। वे थे तो भौतिकी के प्राध्यापक, लेकिन विद्वता, सौम्यता और आत्मीयता उनकी पहचान थी। वे संवादप्रिय कार्यशैली के साथ कार्य करते थे। गहरी बातों को सरल शब्दों में समझाने की क्षमता रखते थे। जब वे सरसंघचालक बने तो कार्यकर्ताओं के बीच परिवार जैसा भाव जगाया। जो भी संघ कार्यकर्ता उनके कार्यकाल में रहा, वह अक्सर स्मृतियां साझा करते देखा जाता है।
कुप्पाहल्ली सीतारामैया सुदर्शन : आप संघ के पांचवें सरसंघचालक (2000-2009) रहे। 18 जून 1931 को रायपुर में जन्मे सुदर्शन जी तकनीकों पृष्ठभूमि वाले इंजीनियर थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक को आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने की विशेष पहल की। स्वदेशी, विज्ञान और अध्यात्म को मिलाकर उन्होंने संघ को नई दिशा प्रदान की। 'जब हम अपनी संस्कृति, स्वावलंबन और स्वदेशी पर टिके रहेंगे तभी भारत की प्रगति तभी संभव है' ऐसे विचारों वाले सुदर्शन जी का 15 सितंबर 2012 को उनका निधन हो गया।
डॉ. मोहन भागवत : डॉ. मोहनराव मधुकर राव भागवत 2009 से वर्तमान तक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। उनका जन्म 11 सितंबर 1950 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुआ। उनके पिता मधुकर राव भागवत गुजरात के प्रांत प्रचारक थे और माता मालती जी स्वयं संघकार्य के प्रति समर्पित थीं। इसलिए बाल्यकाल से ही उनमें संघ के बीज पड़ गए। नागपुर से पशु चिकित्सा विज्ञान (B.V.Sc. & A.H.) की पढ़ाई करने वाले डॉ. भागवत ने अपना चमचमाता पेशेवर भविष्य को त्यागकर 'राष्ट्र प्रथम' को चुना। वे 1977 में पूर्णकालिक प्रचारक बने और 1975 की आपातकालीन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नहीं डिगे। वर्ष 1991 में उन्हें संघ का अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख बनाया गया। इस दौरान भागवत ने संघ की कार्यपद्धति और विचारधारा को देशभर में नई ऊर्जा के साथ पहुंचाया। 21 मार्च 2009 को वे संघ के पांचवे सरसंघचालक बने। वे इस पद पर आसीन होने वाले सबसे युवा सरसंघचालक हैं। संवाद के साथ समन्वय की रणनीति के साथ आधुनिक समाज में संघ को प्रासंगिक और सर्वग्राही बनाने का उनका प्रयास दिखाई दे रहा है। उन्होंने सामाजिक समरता की बेल को आगे बढ़ाया और जाति, पंथ और भाषा की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर 'हम सब हिंदू है' के संकल्प को बलवान किया। संघ को परंपरावादी तरीके से आगे बढ़ाते हुए तकनीक, पर्यावरण, महिला सहभागिता, शिक्षा और ग्राम विकास, स्वदेशी जैसे समकालीन विषयों को संघ का हिस्सा बनाया।
करोड़ों स्वयंसेवकों के साथ आज अगर संघ इस ऊँचाई पर पहुंचा है तो वह सभी छह सरसंघचालकों की दूरदृष्टि और आजीवन तपस्या का परिणाम है। डॉ. हेडगेवार जी ने बीज बोया, श्रीगुरुजी ने वटवृक्ष बनाया, बालासाहेब देवरस ने उसे समाज से जोड़ा, रज्जू भैया ने आत्मीयता दी, सुदर्शन ने उसे आधुनिक विचारों का जोड़ा और वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत ने उसे विश्व पटल पर आत्मविश्वास, संवाद और व्यापक स्वीकार्यता के साथ स्थापित किया।
इसी का परिणाम है कि वर्ष 1925 की स्थापना तारीख से आत तक संघ राष्ट्रभक्ति और संगठनशीलता के ध्येय के साथ एक सशक्त, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर राष्ट्र का निर्माण करने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है।