Saturday, February 14, 2009

पत्रकार की लाइफ ,ऐसी ही होती है

नौकरी अखबार की
1। ढाई बजे रात को खाता हूं पीता हूं ढाई बजे रात को।जो जीवन जीता हूं

ढाई बजे रात को।परवरिश घर-परिवार की,नौकरी अखबार
की,बनिया-बक्काल की,सत्ता के दलाल दमड़ीलाल की,धूर्त, चापलूस, चुगलखोर
हैं संघाती,घाती-प्रतिघाती,उनके ऊपर बैठे हिटलर के नाती,नौकरी जाये किसी की तो मुस्कराते
हैं,ठहाके लगाते हैं, तालियां बजाते हैं,मालिक की खाते हैं,मालिक की गाते हैं,
मालिक को देखते हीखूब दुम हिलाते हैं,बड़े-बड़े पत्रकार,हू-ब-हू रंगे सियार,इन्हीं के बीच कटी जा रही जिंदगी,
इन्हीं के बीच कटी जा रही जिंदगी,अपनी गरीबी और मैं,चार बच्चे,
बीवी और मैं,महंगी में कैसे जीऊं,वही पैबंदी कैसे सीऊं,रोज-रोज जीता हूं
ढाई बजे रात को।खाता हूं, पीता हूं ढाई बजे रात को।
बैठा है कमीशन तनख्वाह बढ़ाएगा,सात साल हो गएलगता है फिर मालिक पट्टी पढ़ा़एगा,
दो सौ किलो मीटर प्रतिघंटा महंगाई की चाल,जेब ठनठन
गोपाल।मकान का किरायाऔर दुकान की उधारी,रूखी-सूखी सब्जीऔर रोटी की मारामारी,
साल भर से एक किलो दूध का तकादा,इसी में फट गया कुर्ता हरामजादा,
दिमाग में गोबर, आंख में रोशनाईफूटी कौड़ी नहीं, आज सब्जी कैसे आई,
सोचता सुभीता हूं, ढाई बजे रात को।खाता हूं, पीता हूं, ढाई बजे रात को।साभार - जयप्रकाश

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