Saturday, February 14, 2009

interview

हिंदी मीडिया में टैलेंटेड लोग नहीं आ रहे


मीडिया खबर - हमारा हीरो
Written by यशवंत सिंह
Friday, 15 August 2008 01:27
हमारा हीरो - अजय उपाध्याय
''दिल्ली में पूरे एक साल संघर्ष किया और दो-दो दिन भूखे रहा, मेरे इतने ही विरोधी हैं जिन्हें मैं शायद अपनी उंगलियों पर आसानी से गिन सकता हूं, मैं एक ओपीनियन मैग्जीन हर प्लेटफार्म पर लांच करना चाहता हूं, जर्नलिज्म में सबसे बड़ी कमी ये है कि इसने राजनीति से अपना मुंह मोड़ लिया है, मार्केट के दबाव में कई बार कंटेंट भी री-डिफाइन हुआ है''
अजय उपाध्याय। हिंदी मीडिया के बेहद प्रतिभाशाली पत्रकारों में से एक। हर क्षेत्र के प्रति गहरी और संवेदनशील समझ रखने वाला पत्रकार। जर्नलिज्म के ग्लोबल ट्रेंड्स के साथ भारतीय मीडिया की नब्ज को समझने-बूझने वाला विचारक। ज़िंदगी को हमेशा अपने अंदाज और अपनी शर्तों पर जीने वाले इस मशहूर शख्सियत ने पत्रकारिता के शिखर पर पहुंचने से पहले कई मुश्किल क्षण भी देखे - झेले हैं। स्वभाव से बेहद विनम्र और सहज हिंदी मीडिया के इस थिंक टैंक से भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह ने विस्तार से बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के कुछ अंश--

-खुद के जन्म स्थान, बचपन और पढ़ाई-लिखाई के बारे में बताएं?
--यूपी के बस्ती जिले, जो अब संत कबीरनगर हो गया है, के गांव ओनिया का रहने वाला हूं। ननिहाल इसी जिले के रुदौली गांव में है। 1959 में जन्म हुआ। पिता जी डीएलडब्लू (डीजल लोकोमोटिव वर्क्स) वाराणसी में काम करते थे, सो इसी डीएलडब्लू कैंपस के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई-लिखाई हुई। हर साल दो ढाई महीने की छुट्टियों में गांव और ननिहाल में रहते थे हम लोग। नानाजी डाक्टर थे। उनके सानिध्य में काफी वक्त गुजरता था। हाईस्कूल तक डीएलडब्लू में पढ़ाई करने के बाद सेंट्रल स्कूल, कमच्छा, वाराणसी से प्री यूनिवर्सिटी कोर्स किया। इसके बाद भोपाल में मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी में इलेक्ट्रिकल इंजीनयरिंग की पढ़ाई की। पहले यह रीजनल इंजीनियरिंग कालेज कहलाता था। यहां सन 76 से 81 तक पढ़ाई के बाद डिग्री मिलने पर बड़ौदा बेस्ड कंपनी ज्योति लिमिटेड के रिसर्च एंड डेवलपमेंट विंग में असिस्टेंट डवेलपमेंट इंजीनियर के रूप में काम शुरू किया। यहां 81 से 83 तक रहा। इसके बाद मुंबई में क्रांपटन ग्रीव्स ज्वाइन किया। पर मुंबई कुछ ही दिन रहा। वहां की जीवन शैली और आबोहवा के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रहा था। वहां से बनारस लौट आया। घर पर बता दिया कि अगले एक साल तक कोई काम नहीं करूंगा। इस एक साल का इस्तेमाल बीएचयू की सेंट्रल लाइब्रेरी में किताबों से दोस्ती करके किया। इस लाइब्रेरी में हर विषय की गूढ़ से गूढ़ किताबों को पढ़ता-गुनता-बुनता गया। मजेदार यह कि इस लाइब्रेरी की एक सीट मेरी पहचान बन गई और उन दिनों इस सीट के पते से चिट्ठियां आया करतीं थीं। इस लाइब्रेरी के जरिए मैंने इकानामिक्स, पोलिटिकल साइंस, सोशियालजी, लिट्रेचर आदि विषयों की गहन जानकारी हासिल करने की कोशिश की। लाइब्रेरी खुलने से पहले आ जाता था और बंद होने पर निकलता था।
-इंजीनयरिंग की पढ़ाई की और इंजीनियर भी बन गए। फिर पत्रकारिता में कैसे आए।
--बनारस में भारतीय पौराणिक उपन्यासों के प्रख्यात लेखक मनु शर्मा और समकालीन हिंदी साहित्य के आदरणीय समालोचक डा. बच्चन सिंह मेरे मेंटर थे। मैं इनके बहुत करीब था। इनके सानिध्य में साहित्य को बहुत नजदीक से समझा। पत्रकारिता और साहित्य में परस्पर संबंध, विरोध और संतुलन तीनों की बारीकी पर गंभीरता से विचार किया। मनु शर्मा जी के चलते आज अखबार के मालिक शार्दूल विक्रम गुप्ता जी से परिचय हुआ। साहित्य व पत्रकारिता में रुचि को देखते हुए शार्दूल जी ने मुझे सन 84 में आज अखबार में काम करने का आफर दिया। इस तरह पत्रकारिता की शुरुआत हुई।

-अध्ययन के प्रति इतना गहरा अनुराग कैसे पैदा हुआ?
--एक बात बताऊं। मेरी मां 5वीं पास थीं। पर विचार, व्यवहार और बातचीत से कोई नहीं कह सकता था कि वो सिर्फ 5वीं पास हैं। वे पापुलर नावेल पढ़ती थीं। मालवीय जी ने महिलाओं को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए बिना स्कूल गए सीधे 10वीं की परीक्षा देने की व्यवस्था बीएचयू के माध्यम से की। 'एडमिशन' के नाम से प्रसिद्ध यह सर्टिफिकेट 10वीं पास होने के बाद विश्वविद्यालय में महिलाओं के एडमिशन के लिए एक सशक्त माध्यम बना। तो मेरी मां ने कहा कि वो भी आगे की पढ़ाई करने के लिए इस एक्जाम में शरीक होंगी। तब मैं आठवीं में था और अपनी मां को नवीं की किताबों को पढ़कर पढ़ाता था। इतिहास, होमसाइंस, इंडियन हिस्ट्री, यूरोपियन हिस्ट्री की किताबें पहले खुद पढ़ता था, फिर मां को पढ़ाता था। स्कूटर से मां को बीएचयू छोड़ने जाता था। इसके बाद मां ने फिर रेगुलर बीए और एमए की पढ़ाई की व पास हुईं। तो इस तरह घर का जो माहौल रहा उसमें पढ़ना-लिखना जिंदगी का हिस्सा-सा था।
-पत्रकारिता में काशी से शुरुआत करने के बाद दिल्ली कैसे आए?
--आज अखबार में छह माह तक शार्दूल जी के साथ रहकर हर तरह का काम किया। कह सकते हैं कि अखबार की पूरी ट्रेनिंग मिली। छह माह बाद संपादकीय पेज का इंचार्ज बना दिया गया। पद था सहायक संपादक का। यहां 84 बिगनिंग से 88 तक रहा। उन्हीं दिनों यह समझ में आने लगा कि पत्रकारिता की मुख्य धारा दिल्ली बनने लगी है तो मन में दिल्ली चलो की इच्छा पैदा हुई। शार्दूल जी से आत्मिक लगाव था, सो उनसे मैंने दिल की इच्छा कह दी। उन्होंने चाहते हुए भी मुझे रोका नहीं। मैं तब 88 इंड में दिल्ली आ गया और यहां पूरे एक साल स्ट्रगल किया। जब तक आज अखबार का पीएफ का पैसा रहा, काम चलता रहा लेकिन जब यह खत्म हुआ तो फिर खाने की मुश्किल पैदा हो गई। दो दो दिन भूखा रहा। नौकरी कभी मांगी नहीं और यहां कोई खुद देने को तैयार न था। आईएनएस की संजय की चाय दुकान मेरे लिए एंकर (जहाज का लंगर) की तरह था। कह सकता हूं कि ये दुख के दिन मेरे लिए अच्छे दिन भी थे। उन दिनों अधिकतर समय अनिल त्यागी के साथ गुजारा। इन संकट के दिनों में भी धैर्य नहीं खोया। पोलिटिकल कनेक्शन मेरे थे, मूवमेंट काफी था और फ्री लांसिंग भी कर लेता था। इसके चलते कई तरह की खबरें, सूचनाएं मेरे पास होती थीं। मैं तब भी कई पत्रकारों को खबरें ब्रीफ किया करता था।
-दिल्ली में पहली नौकरी कहां की और कैसे मिली?
--यह भी एक कहानी है। जब मैं आज अखबार में था तो एक बार मास्को के यूथ फेस्टिवल में जाने का मौका मिला। तब राजीव गांधी पीएम थे। जहाज पर बगल वाली सीट पर नरेंद्र मोहन जी थे। उनसे उस यात्रा के दौरान और वापसी के बीच ठीकठाक परिचय हो गया। जब मैं दिल्ली में स्ट्रगल कर रहा था तो एक दिन राजीव शुक्ला आईएनएस के सामने मिले। वे मुझे आईएनएस में नरेंद्र मोहन जी से मिलाने ले गए। तब जागरण दिल्ली में प्रकाशन की तैयारी कर रहा था। नरेंद्र मोहन जी के दिमाग में मास्को यात्रा जिंदा थी, तभी वो मुझे देखते ही तुरंत पहचान गए। इस तरह दिल्ली में पहली नौकरी दैनिक जागरण में मिली। पर यहां तीन महीने ही रहने के बाद किन्हीं वजहों से छोड़ दिया। फिर मस्ती के दिन शुरू हो गए। इसके बाद संडे मेल ज्वाइन किया और बाद में उसे भी छोड़ दिया। हिंदी संडे आब्जर्वर शुरू हुआ तो उदयन शर्मा के बाद राजीव शुक्ला संपादक बने। संपादक बनने के बाद राजीव शुक्ला ने मुझे वहां बुला लिया। दिसंबर 1992 को यह बंद हो गया। लगभग इसी समय साप्ताहिक हिंदुस्तान भी बंद हुआ। तब राजीव शुक्ला और मैं इंगलिश संडे मेल में चले गए और यहां ढाई साल तक रहे। इसके बाद माया में छह माह रहा फिर दैनिक जागरण में ब्यूरो चीफ के रूप में वापस लौटा। इसके बाद मुंबई चला गया जहां नवभारत लांच किया लेकिन बैक पेन की प्राब्लम के चलते मुंबई में टिक नहीं पाया। ह्यूमिडिटी व अन्य वजहों से मुंबई मुझे सूट नहीं कर रहा था और डाक्टर की सलाह के बाद मुंबई छोड़ना पड़ा। मुंबई से ही मैंने राहुल देव से संपर्क साधा। दिल्ली वापस आया तो राहुल देव आज तक के हेड थे। तब आज तक केवल 20 मिनट के लिए डीडी मेट्रो पर आता था। यहां के बाद फिर जागरण में लौटा और इसके बाद वर्ष 2000 में हिंदुस्तान में ज्वाइन किया।
-हिंदुस्तान में कैसे आना हुआ?
--भारत भूषण जी की वजह से। हुआ ये था कि एक बार कारगिल वार को लेकर पीएम के प्रमुख सचिव ने देश के चुनिंदा संपादकों के लिए ब्रीफिंग सेशन का आयोजन किया। इस ब्रीफिंग सेशन में ही भारत भूषण जी से मुलाकात हुई। बाद में उन्होंने एचटी भोपाल में आरई के रूप में ज्वाइन करने का आफर दिया। री-निगोशिएशन के बाद हिंदुस्तान, दिल्ली का संपादक बना दिया गया। यहां ढाई साल रहा। उन्हीं दिनों हिंदुस्तान ने हिंदी हर्ट लैंड में एक्सपेंसन का प्लान बनाया। तब बजाय छिटपुट अलग-अलग जगह संस्करण लांच करने के, उन जगहों पर लांच करने की योजना बनाई जिससे हिंदुस्तान के मूल संस्करण जैसे लखनऊ और पटना मजबूत होते थे। इसी के चलते मुजफ्फरपुर, भागलपुर, रांची, बनारस जैसे संस्करण लांच हुए।
-पत्रकारिता में बदलाव और इसकी दशा-दिशा पर आपकी क्या राय है?
--बदलाव इतिहास का नियम है। जो कल था वही आज हो, यह गलत मान्यता है। कुछ चीजें कुछ दिनों तक चलती हैं। इतिहास के एक कालखंड तक चलती हैं। हां, बदलाव बहुत तेज हो, यह ठीक नहीं। पत्रकारिता का दुनिया में कुल इतिहास 300 सालों का है। इसमें तरह तरह के बदलाव आते रहे हैं। कुछ बदलावों के बारे में चर्चा कर सकते हैं। जैसे, इंग्लैंड में पहली बार अखबार आए और वो राजशाही के खिलाफ बोलने का जरिया बने। तब इन अखबारों को शिकंजे में कसने के लिए हर पेज पर टैक्स लगा दिया गया। इसके बाद अखबार मालिकों ने टैक्स से बचने के लिए पेज का आकार ही बढ़ा दिया। तबसे बढ़े आकार के अखबार ही चलन में आ गए। 18वीं सदी के अंत में हुई अमेरिकी और फ्रेंच क्रांति ने आज की पत्रकारिता के बीज बोए। अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन के ठीक पहले ब्रिटिश हुकूमत बगैर नोटिस दिए अमेरिकी आंदोलनकारियों के घर में जबरन घुसकर पंपलेट, अखबार आदि सीज कर लेती थी। इसलिए अमेरिकी आजादी की लड़ाई में प्राइवेसी यानि निजता एक बड़ा मुद्दा बना। आजादी मिलने के बाद जब अमेरिकी संविधान बना तो उसमें प्रोटेक्शन आफ प्राइवेसी उसके केंद्र में थी। जहां दूसरी ओर इंग्लैंड में मैग्नाकार्टा के बाद से प्रोटेक्शन आफ राइट्स आफ प्रोपर्टी सेंट्रल प्वाइंट बना। टाम (थामस) पेन ने इसी बीच राइट आफ इंडीविजुवल लिबर्टी को लेकर एक मशहूर पंफलेट लिखा और सशक्त आंदोलन चलाया। गोपाल कृष्ण गोखले की सबसे पसंदीदा एडमन बर्ग द्वारा रचित किताब 'रिफ्लेक्शन्स आन द रिवोल्यून इन फ्रांस' के खिलाफ टाम पेन ने 'राइट्स आफ मैन' नामक किताब रची। कहने का आशय ये कि अमेरिकी और फ्रेंच क्रांति के बाद प्रेस की आजादी और निजी अभिव्यक्ति को लेकर नई चेतना जागृत हुई और दुनिया के तमाम संविधानों में उसे संवैधानिक हक मिलने लगा। यह एक बहुत बड़ा बदलाव था। अमेरिकी क्रांति में पत्रकारिता के योगदान से आजादी पूर्व भारतीय पत्रकारिता भी अछूती न रही। दुर्भाग्य की बात यह है कि अमेरिकी संविधान के डेढ़ सौ साल बाद बने भारतीय संविधान में प्रेस की आजादी का खुला उल्लेख नहीं हो पाया।
दूसरा बड़ा बदलाव आया सन 1827-28 में। अमेरिका में पहली बार अखबार के दाम लागत से कम कर दिए गए और भरपाई विज्ञापन के जरिए करने की शुरुआत हुई। यह भी पत्रकारिता के इतिहास में बड़ा बदलाव था जिसका प्रभाव सामने दिख रहा है। 19वीं सदी में विज्ञान तकनीक के विकास के बाद साइंटिफिक टेंपरामेंट और साइंटिफिक मेथड पत्रकारिता के हिस्सा बने। धीरे-धीरे साइंस हावी होता गया। धर्मशास्त्र हटता गया। अमेरिकी पत्रकार साइंटिफिक मेथड अपनाकर आब्जेक्टिविटी पर जोर देने लगे। तथ्य को स्थापित करने के लिए अंकों का इस्तेमाल होने लगा। हालांकि मैं निजी तौर पर मानता हूं कि स्टैट्सस्टिक्स (सांख्यिकी) बहुत हद तक बहुत सारी चीजों को स्थापित करती है पर इससे बड़ा पत्रकारिता का कोई दुश्मन भी नहीं है।
मार्केट सीनेरियो भी पत्रकारिता को बदल रहा है। पर मार्केट ही अकेले नहीं बदल रहा है। बदलाव में टेक्नोलाजी की भी बहुत बड़ी भूमिका है। पत्रकारिता और अखबार रंगीन होने लगे। एडवरटाइजर का रोल बढ़ा क्योंकि विज्ञापन से प्रोडक्ट बिकता है। इसलिए विज्ञापन का महत्व बढ़ता गया। विज्ञापन पाठक के लिए सूचना का एक बड़ा हथियार भी है। पर यह सब कहने के साथ मैं यह जोर देकर कहूंगा कि विज्ञापन के आने या न आने से पत्रकारिता के उपर उसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। जर्नलिज्म की गरिमा की हर हालत में रक्षा होनी चाहिए। यह सच है कि जब समाचार पत्र रंगीन हुए तब आर्थिक कामयाबी बढ़ी। टेक्नालाजी में जब जब बदलाव आया तब तब अखबारों में मार्केटिंग का अतिक्रमण हुआ। लोग मार्केटिंग को गालियां देते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि मार्केटिंग के दबाव में कई बार कंटेंट भी री-डिफाइन हुआ है। बाजार के दबाव के चलते ही बच्चों और महिलाओं के लिए अलग से कंटेंट दिया जाने लगा और नीश कंटेंट पैदा हुआ। आडियेंस फ्रैगमेंटेशन आया। तो मार्केट व मार्केटिंग से निगेटिव के साथ पाजिटिव चेंज भी आए हैं।
इराक युद्ध से जन्मी एक नई तरह की पत्रकारिता जिसने साइंटिफिक मेथड व टेंपरामेंट से पनपी आब्जेक्टिव पत्रकारिता को चुनौती दी। इसने देरिदा के डी-कंस्ट्रक्शन की थ्योरी को पत्रकारिता में प्रासंगिक बना दिया, हालांकि यह थ्योरी भाषा में व साहित्य में मर चुकी मानी जाती है।
-आपको क्या चीजें बुरी लगती हैं?
--देखिए, मैं बहुत संतुष्ट आदमी हूं। पर एक चीज है जिसे कहना चाहता हूं। कोई एक घटना, एक बयान, एक बात, एक मुलाकात के आधार पर कभी किसी व्यक्ति के बारे में विचार नहीं बनाना चाहिए। काशी में पत्रकारिता करता था तो दिल्ली आकर अक्सर देवकांत बरुआ से मिलता था। वे एक जमाने में कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। इन्होंने एक नारा दिया था- इंदिरा इज इंडिया। खूब उछला यह। आम जनता के मन में बरुआ के बारे में चाटुकार स्वभाव के रीढ़हीन नेता जैसी धारणा पैदा हुई जो इंदिरा की तुलना भारत से करता है। मेरी निगाह में देवकांत बरुआ से ज्यादा पढ़ा लिखा और समझदार राजनेता इस देश में नहीं हुआ। डीके बरुआ भारत के सामाजिक भौगोलिक इतिहास व समाज के अच्छे विद्यार्थी थे। इस अध्ययन के चलते उन्हें ये समझ आई कि भारत नारों का देश है। यहां नारे चलते हैं। उसी समझ के तहत नारा दिया जो ओवर सिंपलीफिकेशन की थ्यूरी का पार्ट है। जो व्यक्ति कांग्रेस अध्यक्ष रहा हो, पेट्रोलियम मंत्री रहा हो उसने जीवन का शेष भाग लोधी कालोनी के छोटे से फ्लैट में गुजार दिया, उसने 75 हजार किताबों की लाइब्रेरी को जगह के अभाव में दूसरे राजनेता के घर में छोड़ दिया। पर उनकी यह ईमानदारी, देश प्रेम, साहित्य प्रेम, समाज व भूगोल की समझ को छोड़कर उनके एक नारे के आधार पर उनके बारे में गलत धारणा बन गई। बरुआ साहब कास्ट सिस्टम के बहुत बड़े जानकार थे। आप देश के किसी कोने के हों, बस अपना नाम बताइए और बरुआ आपको आपके गांव के मंदिर के कल्चर के बारे में बता देंगे। धारणा बनाने की बात पर मैं एक ताजा उदाहरण देना चाहूंगा। आरुषि तलवार के केस को लीजिए। पहले ही दिन अगर पुलिस को शक था, मीडिया को शक था तो राइट आफ डाउट के आधार पर चुपचाप इनवेस्टीगेट करना चाहिए था पर दोनों ने ऐसा नहीं किया। पुट एंड फ्रेम्ड बिहाइंड द बार्स। पिता पुत्री के नाजुक रिश्ते की नासमझी। सेंसेशनलिज्म के आगे घुटने टेक देना। दोनों ने अपनी सीमाओं को लांघा। यह गलत है। बाउंड्री आफ इंस्टीट्यूशन का पालन करना जरूरी है। तो मेरा यही कहना है कि किसी भी चीज के बारे में सतही तरीके से देखना, सोचना नहीं चाहिए।
-आपके शौक क्या हैं?
--दुनिया घूमने का शौक है। 45 देशों की यात्राएं की हैं। आस्ट्रेलिया छोड़कर कोई कांटीनेंट नहीं बचा। जिस दिन आस्ट्रेलिया जाना था उसी दिन गोधरा हो गया था। खाने के मामले में ग्लोबल हूं। खिचड़ी मुझे खास पसंद है। रोज खिचड़ी मिलेगी तो रोज मन से खाउंगा। पूरे साल खिचड़ी खा सकता हूं। बाकी विश्व का शायद ही ऐसा कोई खाना हो जिसे न खाया हो। चेन्नई के मुर्गन इडली शाप से लेकर न्यूयार्क में वाल्डोर्फ आस्टोरिया तक समान रूप से पसंद है।
-आप मीडिया एजुकेशन से भी जुड़े रहे हैं। हिंदी मीडिया में टैलेंट के मामले में आपका क्या अनुभव है?
--हिंदी में टैलेंटेड लोग पत्रकारिता की तरफ नहीं आ रहे हैं। यह शुभ नहीं है। हालांकि अब पैकेज भी ठीक-ठाक मिल रहा है। यह मानकर चल रहा हूं कि जो बदलाव आ रहे हैं उससे टैलेंट अट्रैक्ट होगा। प्रतिभावन छात्रों का अभाव एडमिशन के लेवल पर ही दिखाई देता है। मेरा मानना है कि पत्रकारिता को भी कोशिश करनी चाहिए कि वो टैलेंट स्काउट करे। खोजे। तलाशे। कालेज जाइए। विश्वविद्यालय के पास जाइए। जर्नलिज्म के अलावा अन्य डिपार्टमेंट्स में भी कैंपस इंटरव्यू करिए। विविधता होनी चाहिए। दंभ तोड़ना होगा और विश्वविद्यालयों के दरवाजे खटखटाने होगे। जर्नलिज्म स्कूल में बहुत अच्छे विद्यार्थी नहीं आ रहे। इसके लिए हिंदी मीडिया को भी इन श्रेष्ठ छात्रों की तलाश की कोशिश करनी चाहिए।
-हिंदुस्तान जैसे अखबार के संपादक रहे आप और वाराणसी समेत कई संस्करणों को लांच भी कराया। कामधाम को लेकर कुछ लोगों ने आप पर भी उंगलियां उठाई हैं.....?
--देखिए, काजल की कोठरी में कितना भी सयाना जाएगा, थोड़ी बहुत कालिख लग ही जाएगी। पत्रकारिता का भी यही हाल है। वैसे, मैं यह मानता हूं कि मेरे विरोध करने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है। मेरे इतने ही विरोधी हैं जिन्हें मैं शायद अपनी उंगलियों पर आसानी से गिन सकता हूं....(हंसते हुए)। पर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मैं संतुष्ट हूं।
-आपकी कोई ऐसी इच्छा या कोई ऐसा सपना जो अभी करने को बाकी है, पूरा न हुआ हो....?
--मैं एक ओपीनियन मैग्जीन हर प्लेटफार्म (प्रिंट, वेब, टीवी, मोबाइल...हर माध्यम) पर लांच करना चाहता हूं। इसका आब्जेक्टिव डिफेंस आफ डेमोक्रेसी होगा। मैं मार्केटिंग के अतिक्रमण या मार्केट के विस्तार से नहीं डरता बल्कि कई मायनों में मैं इसका स्वागत करता हूं। इसकी ढेर सारी अच्छाइयां हैं। बड़ा खतरा फार्म आफ गवर्नेंस है। राजशाही से मुक्ति मिली और जनता की सार्वभौमिकता स्थापित हुई है। इसे टेकेन फार ग्रांटेड नहीं लेना चाहिए। जर्नलिज्म में सबसे बड़ी कमी ये है कि इसने राजनीति से अपना मुंह मोड़ लिया है। इसके चलते पब्लिक सरवेंट के गवर्नेंस और उसकी एकाउंटिबिलिटी पर असर पड़ा है। थैंक्स टू राइट टू इनफारमेशन। यह एक नया माध्यम जनता को मिला है। इसके चलते राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की निरंकुशता पर कुछ लगाम लगा लेकिन जब तक पत्रकारिता अपने को सही मायने में प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में नहीं पुनर्स्थापित करेगी तब तक फ्रीडम आफ प्रेस एंड फ्रीडम आफ स्पीच के गर्दन पर दो अदृश्य हाथ हमेशा बने रहेंगे। कब गला घुटेगा, पता नहीं।
-क्या आप भविष्य में कोई किताब भी लिखेंगे?
-हां, दो किताबें लिखनी हैं। एक समकालीन भारत, दूसरी भारतीय पत्रकारिता और फ्यूचर ट्रेंड्स पर।
-आप इन दिनों क्या कर रहे हैं और आगे क्या करने की योजना है?
--गॉड हैज बीन काइंड टू मी। 25 साल के करियर में जो चाहा, प्रयास किया, वो मिला। पत्रकारिता में जो कुछ पीक पर होता है, वो कर चुका हूं। इंटरप्रेन्योरशिप करना है। इसमें ओपीनियन को अपनी समझ के हिसाब से दिशा निर्देशित करने की गुंजाइश है। इसमें क्या कुछ किया जा सकता है, इसको देख रहा हूं, प्लान कर रहा हूं।
-शुक्रिया सर, हमें इतना वक्त देने के लिए।
--थैंक यू यशवंत !

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